सीने पर पत्थर लगता है
कैसा तो दिन भर लगता है
हर रिश्ता अब ज़ंग है जिसमें
पीठ में ही खंज़र लगता है
दिन डूबे तक घर आ जाओ
अब सड़कों पर डर लगता है
चांद से अपनी चारागरी है
छत पर अब बिस्तर लगता है
इतने ख्वाब दफ़न हैं इसमें
दिल मुर्दों का घर लगता है
बाहर - बाहर देखने वालों
घुन अंदर - अंदर लगता है
ख़ुद को ही रस्ता कर डालो
फिर आसान सफ़र लगता है
ध्रुव गुप्त