लोहिया का जाति-विमर्श-


लोहिया जी ‘एक शूद्र को पत्र’ (मार्च 1953) में लिखते हैं- आपका यह कहना बिल्कुल सही है कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के द्विजों की जब तक उदासीनता रहेगी तब तक समाजवाद पाखंड ही रहेगा ।


मैंने अक्सर सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? इस आखिरी घटना ही को लें जब राष्ट्रपति ने ब्राह्मणों के पैर धोए!
मेरे सिवा(डॉ लोहिया) और किसी ने इस कुकर्म की निंदा नहीं की । हो सकता है कि नासमझी और नादानी इसका कारण हो । बहुत से समाजवादी ईमानदारी से लेकिन भूल में ऐसा सोचते हैं कि आर्थिक समता की लड़ाई ही काफी है और जाति-पांति तो इस लड़ाई के फलस्वरूप अपने-आप टूट जाएगी । वे समझ नहीं पाते कि आर्थिक गैरबराबरी और जाति-पांति जुड़वां राक्षस हैं और अगर एक से लड़ना हैं तो दूसरे से भी लड़ना जरूरी हैं । हो साकता हैं कि इस हिचक का कारण, भय भी हो कि जाति-पांति से लड़ने पर #लोकप्रियता कम होगी । मुझे एक तीसरा कारण भी दिखलाई पड़ता है । द्विजों का, चाहे वे अलग-अलग पार्टियों में बंटे हों, और आपसी संघर्ष काफी बड़ा हो, एक तरह का अचेतन संयुक्त मोर्चा चलता रहता हैं । साथ उठना-बैठना, शादी-विवाह, नौकरियों और सिफारिशें इत्यादि उनमें एक संबंध बनाए रखते हैं ।
जब मैं शूद्रों को उठाने की बात कहता हूँ, तो आप ऐसा न समझें कि यह द्विजों का केवल फर्ज़ है और स्वार्थ नहीं । मैंने बनियाइनों और ब्राह्मणियों की दुनिया को देखा है और उसकी इज्जत करना भी सीखा है । लेकिन धोबिन, भंगिन की दुनिया की दुनिया को मुझ जैसा आवारा भी न देख सका । मुझे ऐसा लगता है कि इनमें और उन्हीं की तरह आदिवासियों में एक सहज आनंद और स्वच्छंदता की शक्ति है जो द्विजों में प्रायः लोप हो चुकी है । अगर जाति-पांति की दीवारें न हों तो जाने कितने द्विज लड़कों का ध्यान धोबिनों और भंगिनों की तरफ खिंचे जो उनके और देश के लिए कल्याणकारी हो । उसी तरह न जाने कितने शूद्रों और अछूतों का मन मसोसकर रह जाता होगा कि बनियाइनों और ब्राह्मणियों की दुनिया देख नहीं पाते । अब जरूरी होगा कि शूद्र , द्विज और हरिजन “समान प्रसव जाति” के सूत्र को न केवल अच्छी तरह समझें, लेकिन स्थाई मानसिक दशा के रूप में अपनाएं । क्या ब्राह्मण भंगिन से बच्चा नहीं पैदा कर सकता और क्या भंगी ब्राह्मणी से नहीं ? इस संबंध में यह भी याद रखना होगा कि सामान्य तौर से कुर्मी अथवा तेली द्विजों के साथ संबंध जोड़ने और बराबरी हासिल करने का इच्छुक होता है, लेकिन हरिजनों के साथ नहीं । इस तरह की मनोवृति सहज न होकर जटिल और विषमय है । अब तो सहज वृति से ही काम चलेगा कि जो एक-दूसरे से बच्चा पैदा कर सकें वे एक जाति के हैं । जब आप इस वृति को अपना लेंगे तो यह कभी नहीं कहेंगे कि शूद्रों का उत्थान केवल शूद्र से हो सकता है । ##शूद्र_और_द्विज_दोनों_मुर्दा पड़े हैं । शूद्रों को द्विज उठाएंगे और द्विजों को शूद्र । हो सकता है कि इस सिद्धान्त को कारगर करने में हजारों कठिनाइयों का सामना करना पड़े । लेकिन इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं।