मूंछों वाली मां

                मूंछों वाली मां यानी महान शिक्षाशास्त्री गिजुभाई बधेका की आज पुण्यतिथि है

              "एक दिन उनका काम उग निकलेगा।"

गुजराती भाषा के लेखक और महान शिक्षाशास्त्री गिजुभाई बधेका के बारे में यह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उद्गार थे।


आज पूरी दुनिया महात्मा गांधी के विचारों से सहमत है। गिजुभाई को आज पूरी दुनिया में बालशिक्षा का महान मौलिक चिन्तक माना जाता है। भारत से ज्यादा उनका अफ्रीकी और उन समाजवादी देशों में सम्मान है, जहां बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शिक्षा को महत्वपूर्ण विकास का जरिया मानते हुए बाल पाठ्यक्रम रचे गए।


गिजुभाई कोई पेशे से शिक्षक नहीं थे। फिर भी छोटे बच्चों की शिक्षा को नई दिशा देने में उनका बेहद मौलिक योगदान है। वह बाल मनोविज्ञान को कितनी गहराई से आत्मसात करते थे, उनकी चिंता के केंद्र में रहीं इन पंक्तियों को पढ़िए-


मैं खेलूं कहां? मैं कूदूं कहां ? मैं गाऊं कहां? मैं किसके साथ बात करूं? बोलता हूं तो मां को बुरा लगता है। खेलता हूं तो पिता खीझते हैं। कूदता हूं, तो वे जाने को कहते हैं। गाता हूं, तो चुप रहने को कहते हैं। अब आप ही कहिए कि मैं कहां जाऊं? क्या करूं? गिजुभाई ताउम्र इन सवालों से जूझते रहे।
बच्चों को लेकर उनमें कितना ममत्व था, उसे इसी बात से समझा जा सकता कि उन्हें लोग प्यार में मोछाई मां यानी मूंछों वाली मां भी कहते थे। उनका जन्म 15 नवम्बर, 1885 को सौराष्ट्र के चित्तल नामक स्थान में हुआ था। गिजुभाई समाज सुधार और राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य कामों में भी पूरी गंभीरता से रूचि लेते थे। बारदोली सत्याग्रह के समय लोगों की सहायता के लिए उन्होंने बच्चों की 'वानर सेना' गठित की थी। बच्चों की वानर सेना ने इस आन्दोलन में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
गिजुभाई पेशे से वकील थे। लेकिन बचपन में उनकी परिस्थितियां उनके इतने अनुकूल नहीं थीं। इसलिए उन्हें कॉलेज की शिक्षा बीच में छोड़कर आजीविका के लिए 1907 में पूर्वी अफ्रीका जाना पड़ा। वहां से वापस आने पर उन्होंने कानून की शिक्षा पूरी की और वकालत करने लगे।


गिजुभाई अचानक बालशिक्षा की तरफ तब मुड़े जब एक दिन अपने पुत्र की शिक्षा के सिलसिले में वह छोटे बच्चों के विद्यालय में गए और वहां उन्हें मांटेसरी पद्धति की एक पुस्तक मिली। उसका उन पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। इसके बाद तो वे उस तरह की तमाम किताबें ढूंढ-ढूंढकर पढने लगे। जैसे-जैसे पढ़ते गए वैसे वैसे भाव गंगा में डूबते गए। उन्होंने पढी गयीं इन तमाम किताबों से भारतीय परिस्थितियों के अनुसार बच्चों की आरंभिक शिक्षा देने के लिए एक ढांचा गढ़ा। इसके लिए उन्होंने सर्वफ्रथम भावनगर में 'दक्षिणमूर्ति' नाम से एक छात्रावास की स्थापना की। उन्होंने इसके लिए अब अपनी वकालत छोड़ दी थी। गिजुभाई के इस काम में उन्हें नाना भाई भट्ट का भरपूर सहयोग मिला। शिक्षा की नई पद्धति के प्रयोग के लिए शिक्षकों का प्रशिक्षण 'आवश्यक' समझकर उन्होंने 'दक्षिणमूर्ति' को अध्यापक प्रशिक्षण केन्द्र का रूप दिया। लेकिन उनका अध्यापकों के अलावा बच्चों की माओं से भी विशेष आग्रह होता था। गांधीजी भी उनकी इस पद्धति से बहुत फ्रभावित हुए थे और उन्हें प्राथमिक शिक्षा का प्रयोग -पुरुष कहा करते थे। आज जिसे हम जवाहर नवोदय विद्यालयों की प्राथमिक शिक्षा का मॉडल मानते हैं, वही दरअसल गिजुभाई का प्रायोगिक मॉडल है।


आनंददायी और सहभागी शिक्षा का मॉडल, जिसके अंदर से फ्रकट होते हैं सीखने एवं सिखाने के वे तत्व, जिन्हें जिज्ञासा, प्रश्न या तर्क, विश्लेषण, विवेचन, वर्गीकरण, तुलना और निष्कर्ष आदि कहा जाता है। शिक्षा ज्ञान का मात्र अक्षरीकरण नहीं है। गिजुभाई कहते थे कि शिक्षा परिवर्तन की सबसे अधिक प्रभावशाली प्रक्रिया है।


भारतीय शिक्षा आयोग ने 1964-66 में कहा था कि भारतीय प्राथमिक शिक्षा का भविष्य गिजुभाई के मॉडल में है। लेकिन शैक्षिक क्षेत्र में व्याप्त राजनीति ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे वाकई में हकदार हैं। गिजुभाई कोई नियमित शिक्षक नहीं थे और न उन्होंने शिक्षा का कोई प्रशिक्षण लिया था। जिस समय नवाचार, बाल-केंद्रित शिक्षा, आनंददायी एवं सहभागी शिक्षा जैसे मुहावरे भारतीय शिक्षा में शैक्षिक प्रक्रिया , पद्धति या प्रणाली के रूप में मौजूद ही नहीं थे, उस समय गिजुभाई ने तत्कालीन शिक्षा और शिक्षण-पद्धति में सार्थक हस्तक्षेप किया था। शिक्षा के तत्कालीन स्वरूप, संस्था की स्थिति और उसकी कार्य-फ्रणाली, शिक्षक एवं उनकी शिक्षा-चेतना, व्यवस्था एवं उसकी शैक्षिक प्राथमिकता ,समाज और उसकी शिक्षा के फ्रति जिम्मेदारी आदि सभी को अपने प्रयोगों से चकित किया था और शिक्षण एवं शिक्षक दोनों को ही एक नई पहचान दी थी।


ब्रिटिश साम्राज्य उपनिवेश भारत में भारतीय शिक्षा का स्वदेशी और पारंपरिक मॉडल लगभग लुप्त हो चुका था। अंग्रेजी फ्रणाली के स्कूल जगह-जगह कायम हो गए थे और शिक्षक सरकारी नौकर के रूप में स्कूलों में शिक्षण कार्य करते थे। बहुत अधिक अंतर नहीं था उस समय के उन स्कूलों में जहां, गिजुभाई ने अपने प्रयोग और नवाचार किए थे और आज के उन स्कूलों में जो आज भी वैसे ही हैं जैसे गिजुभाई के जमाने के स्कूल थे। गिजुभाई के समक्ष स्कूल का कोई ऐसा मॉडल या आदर्श नहीं था, जिसे वे अपना लेते।


गिजुभाई के समक्ष था एक छोटे से कस्बे का वह सरकारी स्कूल, जिसका भवन न भव्य था, न आकर्षक, न बच्चों के आनंद और किलकारी से गूंजती जगह। जिस स्कूल में गिजुभाई ने मास्टर लक्ष्मीशंकर के रूप में एक प्रयोगी शिक्षक की परिकल्पना की थी, वह स्कूल उदासीनता और उदासी की छाया से ग्रस्त था। शिक्षकों में न उत्साह था, न सोच के फ्रति संवेदना। गिजुभाई ने सबसे पहले स्कूल के तत्कालीन रूपक को उसकी जड़ता और गतिहीनता से मुक्त किया। प्राथमिक शिक्षा में आनंद की नई वर्णमाला रची, बाल-गौरव की नई फ्रणाली रची और कक्षा के भूगोल को समूची पृथ्वी के भूगोल में बदलकर भारतीय शिक्षा का नया इतिहास रचा, नया बाल-मनोविज्ञान रचा और शैक्षिक नवाचारों की वह दिशा एवं दृष्टि रची, जो आज भी फ्रासंगिक एवं सार्थक है।


गांधी जी और गिजुभाई दोनों वकील थे, मगर एक ने राष्ट्र की वकालत की, स्वतंत्रता की वकालत की, तो दूसरे ने शिक्षा की वकालत की। गिजुभाई के रोचक और जीवंत मॉडल के लिए जरुरी था कि बच्चों के लिए रोचक ढंग की उपयुक्त पाठ्य सामग्री तैयार की जाए। गिजुभाई ने यह काम भी अपने हाथ में लिया। इसके लिए उन्होंने विभिन्न शैलियों में एक सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की। उनकी इन पुस्तकों में से दर्जनों आज भी काम में आ रही हैं। इस तरह उन्होंने बालकथा साहित्य में अद्भुत योगदान दिया है। बच्चों की शिक्षा उनका मुख्य क्षेत्र था, पर समाज सुधार और राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य कामों में भी वे पूरी रुचि लेते थे। उन्होंने अपनी संस्था में उस समय हरिजनों को भरपूर प्रवेश दिया।


गिजुभाई का निधन 23 जून, 1939 को हुआ l अपनी जिन्दगी को बच्चों को समर्पित करने वाले महान शिक्षाविद की पुण्यतिथि पर शत शत नमन l