रामायण का एक प्रसंग कहीं पढ़ा था कि सीता ने राम से कहा- राज्य में दुखी लोग हैं,हाड़तोड़ परिश्रम कर भी सुखी नहीं रह पाते हैं,सो आप ऐसा कुछ करें कि सभी सुखी हो जाएँ !
वह अलौकिक ज़माना माना गया,तदनुसार राम ने ऐसा कुछ किया कि दूसरे दिन से किसी को भी कोई कमी नहीं रही !
संयोग से कुछ दिनों में सीता के महल की छत चूने लगी,तो राम से कहा,राम ने भृत्य भेजा,सारी अयोध्या में कोई नहीं मिला जो यह काम करता हो,क्योंकि बग़ैर कुछ किए ही वह सुखी था !
यह एक बोध कथा-सी है,लेकिन हम पहले सुख की व्याप्ति पर विचार कर लें,इस घटना से यह साबित हुआ कि भौतिक प्राप्ति ही अधिकांश लोगों के लिये सुख है,अब इस कहानी में कुछ और जोड़ दें कि एक सुखी राजमीस्त्री अपने औज़ार लेकर आया और राम की छत रिपेयर कर चला गया,उसको यथोचित परश्रमिक भी दिया गया,जिसे वह अपनी प्राप्ति मानता था,लेकिन वह और सुखी हो गया !
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पेंच बढ़ गया,याने जिन लोगों को छत की मरम्मत करने की तलब नहीं हुई,सो क्यों नहीं हुई ,मुझे लगता है,यह मनुष्य की उस हरामी और स्वार्थी प्रवृति से ताल्लुक़ रखता है,जहाँ वह ऊँचे उठता जाता है,और अपने अतीत को भूलते जाता है,और अतीत को भूलने वाले ही ज़्यादा रहते हैं,सो वाम आंदोलन एक ख़ास स्थिति में आ कर धड़ाम हो जाता है,जिसे हम हमारी भाषा में पेटी बुर्जुआ और बुर्जुआजी स्खलन कहते हैं !
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सुख तो रुखी-सूखी खा कर भी-ठंडा पानी पीव- में भी होता है और भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे- मानने से भी होता है और नहीं होता है तो महलों में भी-नहीं नहीं,महलों में तो नहीं ही होता है !
सुबह-सुबह यह सारे उद्गार मेरे एक पोस्ट के संबंध में उगरे,जिसमें मुझे कुछ मित्रों ने श्रम विरोधी मान लिया,तो मित्रों,मेरी तो तीन चौथाई जिंदगी ही पीर बवर्ची भीश्ती खर में गुज़री है,भंगी से लेकर नौकर तक के सारे काम किए हैं मैंने,सड़कों पर नहीं,अपने दड़बे में,बिना किसी शिकायत के,तभी श्रम के महत्व को समझा है और मुझे हमेशा याद रहता है कि किसी ज़माने में एक तरकारी के साथ सूखी रोटी में जो स्वाद आता था,वह आज सबकुछ मिलने के बाद भी नहीं आता है !
सुख एक ऐसा शब्द है मित्रों,जो बाहर से कम और अंदर से जियादा ताल्लुक़ रखता है ॥
Pramod bedia