#स्ट्रीटफूड_की_हिमायत_में_

🔵 विंध्य की पहचान अगर उसकी घोर जाग्रत राजनीतिक चेतना है तो उसका वेलकम ट्रीट है रामपुर बाघेलान की खुरचन। आस्तिक हैं तो पक्के से खा लीजियेगा वरना ऊपर से दोबारा नीचे भेजे जाएंगे खुरचन भर खाने के लिए। क्या पता चींटा या मख्खी बनाकर भेज दे ऊपर वाला ? क्योंकि जितनी तरह के अदृश्य, अनुपस्थित ऊपर वालों के नीचे वालों के लजीज भोग देखे और खाये हैं उनसे यह समझ आया है कि वह जो नहीं है किन्तु उनके लिए है उसे मिठाई बहुत प्रिय है। बिना खुरचन खाये गए तो बन्दे का खीजना-झुंझलाना तय है।

🔵 नास्तिक होने के बावजूद ख्याल रखते हैं। कई वर्षों से सड़कमार्ग से नहीं आते तो रामपुर नहीं पड़ता। मगर जब रीवा से भोपाल की रेल में बैठते है तो एक गरीब बामन महाराजा गुलाब सिंह के जमाने की तराजू लिए खुरचन बेचने आता है। उनसे लेकर इतनी बार खाई है कि अब देखते ही मुस्कुरा कर तौलने लगना है और एकाध टुकड़ा ज्यादा ही रख देता है। कितना भी ठूंस कर खाकर आये हों खुरचन टूँग कर ही मानते हैं। जिस दिन नहीं मिलती यात्रा अधूरी लगती है।

🔵 हालांकि सतना के रामपुर की खुरचन और मथुरा की खुरचन में उतना ही अन्तर है जितना मथुरा के चौबों और रीवा के डीएमटीयों (पण्डितों का एक प्रकार जो स्वयं को धरा का श्रेष्ठतम और चतुरतम ब्राह्मण मानता है) में होता है। रामपुर की खुरचन जहां परतों का समावेश होती है वहीं मथुरा की खुरचन उनकी निरंतरता होती है। जमुना किनारे बने नयनाभिराम घाटों पर शाम के समय ठण्डाई पीने के बाद पेड़ों का स्टार्टर और खुरचन का मेन कोर्स सीधे वैकुण्ठ-अनुभूति की गारंटी है ; बशर्ते ये ठण्डाई ऐंवेई यानि बादाम, खरबूजे के बीज, दूध खाण्डसारी आदि का मेल न हो - विजया के मेल से सचमुच की हरियाई हरियाई ठण्डाई हो।

🔵 इसी तरह की दो ख़ास मिठाइयां हैं। पहली का नाम याद नहीं ; छैने के ख़ास मेल से बनी चाशनी में तैरती इस डिश का स्वाद अलग ही था। छत्तीसगढ़ के कोरबा निवासी, साझे मध्यप्रदेश के शानदार कामरेड कामेश्वर सिंह डायबिटिक थे और मधुमेह पीड़ितों की ख़ास बात मिठाई के प्रति उनकी अतिरिक्त चाहत होती है। इस दमित कामना को वे दूसरों को खिलाकर ही पूरा कर लेते हैं । इसलिए कोरबा जब भी गए बांकी सुराकछार (असल में घुड़देवा कालोनी के बाहर सड़क किनारे) बनी एक दूकान पर, जब तक कामेश्वर सिंह रहे तब तक, रोज इस ख़ास मिठाई की ट्रीट पक्की रही।

🔵 छग के धमतरी में भी ऐसी एक मिठाई है संभवतः लस्ता या ऐसा ही कुछ है उसका नाम। मध्यप्रदेश के पुनर्गठन से पहले धमतरी होम अवे होम था। जब भी रहते, हर शाम ए के लाल (कामरेड अजीत कुमार लाल) खुद डायबिटिक होने के बाद भी इसका सुख लेते भी और लिवाते भी । धमतरी की एक और ख़ास शान है ; उड़द के बड़े , जो आकार में छोटे होते थे मगर उनकी लाल मिर्च की संगिनी चटनी कच्चे लहसुन के मेल के चलते देह के अणु -परमाणुओं में ऐसी क्रिटिकलिटी पैदा करती है कि यदि ढंग से आजमाई जाए तो पूरे यूरोप और यूएसए को घुटनो पर ला सकती थी/है। (इसे चटनी कहना ग्रोसली अंडरएस्टीमेट करना होगा - यह मराठी ठेसा और यूरोपियन मस्टर्ड के गाढ़े मेल से भी ज्यादा झरप वाली और तीखी होती थी/है)

🔵 कल करेली के आलू बंडो का जिकरा था। इन दिनों ये रूप पर ज्यादा सार पर कम जोर वाले हैं। इनकी तुलना में रीवा बस स्टैंड गेट की दूकान के आलू बंडो की बात ही अलग है - इमली के झोल और तली हुयी मिर्च के साथ बेसन की पतली परत के इन लगातार छोटे और महँगे होते जा रहे गुटकों का स्वाद अलगई है - शहडोल-अनूपपुर के सोड़ा डालकर फुलाये गए बेसन वाले अपने बिरादरों से लहजे, स्वाद और तेवर सब मे एकदम्मई अलग ।

🔵 निमाड़ के स्ट्रीट फ़ूड पर बाद में अभी जो न मालवा है न निमाड़ उस रतलाम की खासियत गराडू के बारे में ; यदि रतलाम में आपने गराडू नहीं खाये, या उनकी पेशकश किये जाने पर मुण्डी मनाही में हिला दी तो तो बहुत मुमकिन हैं कि अदरवाइज मिलनसार और मेहमाननवाज रतलामी आपको पर्सोना नॉन ग्रेटा (अवांछित व्यक्ति) घोषित कर दें। गराडू क्या होते हैं ये उस कन्द के खौलते तेल की कड़ाही से निकलकर प्रतापगढ़ी जीरामन और हरीमिर्च की चटनी के साथ खाकर ही जाना जा सकता है।

🔵 देश में जितना अंदर जाते हैं स्वाद उतना ही भदेस और मौलिक होता जाता है। अनूपपुर से अमरकंटक जाते में राजेंद्रग्राम के ठेलों पर मिलने वाले उबले और अंकुरित (दोनों अलग अलग) देसी चने ऐसे ही स्वाद हैं। ताज़ी हरी मिर्च इनकी तासीर बदल देती है। राजेंद्रग्राम से कुछ पहले सरई मोड़ की कानपुरिया सेठ की दूकान के भजिये और समोसे भी खाये जा सकते हैं। बाइक पर रहे या चौपहिया पर - यहां रुके बिना आगे बढे हों याद नहीं।


🔵 हर्र मिले न फिटकरी स्वाद चोखा की कहावत दरअसल हाथरस और मुड़सान के जन-आहार मोस्ट पॉपुलर स्नैक्स भुने हुए आलू हैं। बिना किसी तामझाम या टंडीला सजाये सड़क किनारे बैठ तसले में कंडो के बीच से गर्मागर्म आलू निकालकर जब "दुकानदार" मीठी बृज भाषा में उनकी तारीफ़ करते हुए दोने में हरी चटनी या यूँ ही लालमिर्च नमक बुरक कर हाथ देता है तो बस समझिये मोक्ष ही प्राप्त हो जाता है। हमने जब भी खाये तब प्रेमचंद की कफ़न याद आयी। घर में जब भी बनाने की कोशिश की तब न वह स्वाद मिला न संतुष्टि।

🔴 कचौरी को बी.एससी करवाने के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कचरा जंक फ़ूड से स्वाद को बिगाड़ने और देश को पाटने की जो एंटायर पोलिटिकल साईंस हो रही है ; ये स्ट्रीट फूड्स उसके खिलाफ देश भर में बिखरी चौकियां हैं।

🔴 🔴 हम जैसे अनेकों की जीभ, पेट और जिंदगी इन चौकियों की ऋणी है और चूंकि हम हुक्मरानो की तरह अहसान फरामोश नहीं है, इसलिए इन चौकियों के सिपाही हैं ; इन्हे ध्वस्त करने की साजिशें नहीं चलने दी जाएंगी।

badal saroj