दुनिया एक रंगमंच है, मगर हम सब उसकी कठपुतलियां नहीं है

#विश्व_रंगमंच_दिवस_पर 
वैसे तो बकौल विलियम शेक्सपीयर (फ़िल्म आनन्द से हिंदी में मशहूर हुआ संवाद ) "ये दुनिया एक रंगमंच है और हम सब इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं ।"  मगर ये कुछ ज्यादा ही सरलीकरण है । दुनिया के बारे में बाकी फलसफा फिर कभी, अभी सिर्फ इतना कि हाँ, दुनिया एक खूब विशाल रंगमंच है, मगर हम सब इसकी कठपुतलियां नहीँ है । वे भी नहीं जिन्हें पक्का यकीन है कि उनकी डोर किसी ऊपरवाले के हाथों में हैं ।
🔴 दुनिया एक रंगमंच है और इसे जीने लायक बनाने में अन्य अनेक माध्यमों के साथ साथ रंगमंच की भी एक भूमिका है ।
🔴  पता नहीं भवभूति या कालिदास या डायोनेसुस या स्तानिस्लाव्स्की या ब्रेख्त या पिंग डायनेस्टी के जमाने की शैडो पपेट्री के संस्थापक/संस्थापिका क्या मानते थे, एक दर्शक के नाते हम जैसों के लिए रंगमंच का मतलब है : मनोभावों और स्थितियों की अपेक्षाकृत कलात्मक प्रस्तुति/आवेगों और उद्वेगों का , इस मकसद से , व्यवस्थित और सायास प्रस्तुतीकरण ताकि जो दरअसल उस समय नहीं है उसे होता हुआ दिखाया जा सके/ रूपकों और बिम्बों और मुद्राओं और भंगिमाओं के जरिये ऐसा कथोपकथन जिसे अन्यथा समझाने के लिए न जाने कितने हजार शब्दों की आवश्यकता होती ।
#और
🔴 सबसे बढ़कर इन सबका आक्रोश की अभिव्यक्ति, विरोध, प्रतिरोध की कार्यवाही के रूप में इस तरह उपयोग कि वह पटकथा और संवाद लिखने वाले, बोलने वाले , कर दिखाने वाले के हाथ से निकल कर करोड़ों लोगों का कहा , बोला , किया बन जाए । नाटक की भाषा में बोलें तो ऐसा प्रॉम्पटर जिसे एक पूरा युग दोहराये । बुरे के विरोध में कमजोर से कमजोर की भागीदारी करवाने की ताकत । सफ़दर हाशमी के शब्दों में "जब कोई दर्शक नुक्कड़ नाटक के किसी संवाद पर हँस रहा होता है, या किसी बात पर ताली बजा रहा होता है तब दरअसल वह खुद एक प्रतिरोध की कार्यवाही में शिरकत कर रहा होता है ।"
🔴 70 के दशक में कलकत्ता में कुछ लाख लोगों के बीच उत्पल दत्त के नाटक - जो बांग्ला में था - को देखते हुए वे हिलोरें अनुभव की थीं जो एक साथ लाखों चेहरों पर कभी गुस्सा, कभी जोश, कभी संकल्प बिखेर जाती थीं । उनके बाद जिन दूसरे बड़े से मिले वे थे ब ब कारंथ जिन्हें किशोर से उन्मुक्त मन के साथ न जाने कितने रूपों में देखा कितनी भूमिकायें निबाहते देखा । तीसरे थे चरणदास चोर !! वन एंड ओनली हबीब तनवीर साब । हमारे अहद के कमाल के रंगकर्मी । जिनके लिए रंगमंच विचार भी था औजार भी था ।
और विचार वही ज़िंदा रहते हैं जिनके लिए लोग मरने की हिम्मत रखते हैं ।
सफ़दर हाशमी ऐसे ही, हमारे लिए इस दौर के सबसे बड़े रंगकर्मी हैं । जो अपनी शहादत से जन गण के रंगमंच को जीवन दे गए हैं । दधीचि की तरह अपनी हड्डियों का वज्र दे गए हैं । सफदर जो एक कमिटेड सर्जक थे और बहुमुखी दोस्त तथा आदर्श भी ।
(निजी जीवन में रंगकर्म से वास्ता इससे भी ज्यादा गहरा है । जो ल म्बी दूरी तय करते करते क्लाइमेक्स में नीना Neena तक आया है जो खुद रंगकर्म से होते हुए राजनीतिक सहकर्मी और मित्र बनी।)
मानव समाज में नाटक की विधा का उदगम कब , कैसे, कहाँ से हुआ पता नहीं । मगर इतना पक्का पता है कि भाषा के आविष्कार से भी हजारों साल पहले किसी स्त्री ने किया होगा इसका पहला सरल और भदेस उपयोग : किसी रोते हुए बच्चे को मनाने के लिए आवाज निकाल कर, आँख मटकाते, मुंह बनाते हुए । किसी बड़े होते बच्चे को हाथों पैरों की मुद्राओं से नदी पार करना या पेड़ चढ़ना सिखाते हुए । किसी गुलाम ने निर्दयी मालिक की पीठ के पीछे उसकी नकल उतारते हुए बनाया होगा उसका मजाक - निकाली होगी कोई आवाज़ और अपने विरोध को कुछ इस तरह दी होगी परवाज़ । कही और देखते हुए, छुपते छुपाते हुए इशारों में दिया होगा अपने प्रिय को उलाहना या आमन्त्रण ।
🔴  रंगमंच यही सब सिखाता है । #रंगमंच_मनुष्य_को_इंसान_बनाता_है ।


🔴 इसलिये विश्वास है कि बाज़ार की किसी लिप्सा या मुनाफे की किसी हवस का शिकार होकर मरेगा नहीं रंगमंच : जरूरत हुयी तो एक बार फिर सुसज्जित और महंगे थिएटरों से नीचे उतरेगा । किसी गोंड या भील के गाँव, किसी मजदूर की बस्ती, किसी किसान के खलिहान, किसी महिला की आँखों में छुपे सपने की तरह बस जायेगा, फिर उभर कर आयेगा ।
#क्योंकि
दुनिया एक रंगमंच है, मगर हम सब उसकी कठपुतलियां नहीं है ।


( विश्व रंगमंच दिवस पर रंगमंच की हिफाज़त में खड़े, उससे जुड़े सभी परिचित मित्रों को शुभकामनायें- 2017 में ये शुभकामनाये उसी वर्ष मिली युवा रंगकर्मी सिग्मा Sigma के नाम थोड़ी सी एक्सट्रा भी दी थीं, इस वर्ष भी उन्हें और उनके जरिये सभी रंगकर्मियों के प्रति दिली आभार सहित )


बादल सरोज