आज़ादी बचाओ आन्दोलन ने ज़िया भाई के रूप में अपना सबसे ज़्यादा अनुभवी, जुझारू और वयोज्ञानवृद्ध रहनुमा खोया है।

ज़िया भाई ने सम्पूर्ण जीवन जिया, सामाजिक सरोकारों के साथ !



हिन्दुस्तान की इन्द्रधनुषी संस्कृति में रचे-बसे थे, ज़िया भाई !



स्वतन्त्रता-सेनानी, समाजकर्मी, विचारक और सुधीजन ज़िया-उल हक़ सार्थकता, सक्रियता और संघर्षशीलता के साथ 100 बरस की ज़िन्दगी भलीभाँति जी करके सदा के लिए हम लोगों से ओझल हो गये। वे अतिशय सर्वजनप्रिय शख्सियत थे। उन्हें हम लोग आत्मीयता के साथ ‘कामरेड जिया भाई’ कहकर पुकारते थे। उल्लेखनीय है कि साम्यवादी या प्रगतिशील मित्रों को ‘कामरेड’ कहकर सम्बोधित करने की परम्परा है जबकि नाम के आगे ‘भाई’ शब्द जोड़ा जाता है, वरिष्ठ गाँधीजनों या सर्वोदय-कार्यकर्ताओं को आदर-सम्मान देने की ख़ातिर। ‘कामरेड’ और ‘भाई’ - ये दोनों आत्मीयतासूचक शब्द साथ-साथ उनके नाम के अग्रभाग से अभिन्न रूप में गुँथे रहे हैं। मार्क्स, गाँधी, अम्बेडकर, जेपी, नेहरू, लोहिया -- इन सभी की परम्परा या विचारधारा से जुड़े कार्यकर्ताओं, चिन्तकों या संघर्षकर्मियों के साथ ही, अन्य स्वाधीनचेता साथियों के संग भी उनका स्नेहिल सख्य-सम्बन्ध यानी प्रेमल लगाव और जुड़ाव था।

प्रो. बनवारी लाल शर्मा के जाने पर ज़िया भाई ने दिल की गहराइयों से जो बात कही थी वह दरअसल उन पर भी शतप्रतिशत लागू होती है। प्रो. शर्मा को याद करते हुए ज़िया भाई ने स्वतःस्फूर्त भाव से यह कहा था -- “सचमुच इलाहाबाद नहीं जानता है कि उसने क्या खोया है ।” हम भी उसी बात को दोहराना चाहेंगे कि ज़िया भाई के जाने के साथ हमने कितनी बड़ी हस्ती खोयी है उसका अंदाज़ लगा पाना सम्भव नहीं जान पड़ता।

ज़िया भाई के रूप में आज़ादी बचाओ आन्दोलन ने अपना सबसे ज़्यादा अनुभवी, जुझारू और वयोज्ञानवृद्ध रहनुमा खोया है। आन्दोलन के नायक प्रो. बनवारी लाल शर्मा के जाने के बाद एक-एक करके हमारे अग्रणी पथ-प्रदर्शक और सच्चे विचार-गुरु हमसे जुदा होते गये हैं। न्यायमूर्ति रामभूषण मेहरोत्रा, प्रो. ओमप्रकाश मालवीय का जाना और अब ज़िया भाई का बिछोह हमारे लिए आघात-पर-आघात जैसा रहा है। हमारे जवाहिरख़ाने में एक से बढ़कर एक अनमोल रतन रहे हैं जिन्हें क्रूर कालचक्र हमसे छीनता गया है। डॉ. रघुवंश ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के औपनिवेशिक मकड़जाल को काटते जाने और पूर्ण स्वराज की दिशा में उत्तरोत्तर अग्रसर होने का बीज-मन्त्र दिया था जिसे डॉ. शर्मा ने देश के कोने-कोने में गुंजायमान् कर दिया था। ज़िया भाई, न्यायमूर्ति मेहरोत्रा और प्रो. मालवीय ने उसे धारदार, पैना और अचूक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

हिन्दुस्तान की संस्कृति इन्द्रधनुषी है। उसमें विविधता है, बहुलता है, पारस्परिकता है, समायुक्तता है, समष्टि है। एकरूपता, जड़ता या शुष्कता उसकी बुनियाद में कहीं दूर-दूर तक नहीं है। अगर कहीं कोई विक्षोम उठा भी है, तो समतत्त्वता से भरी यहाँ की संजीवनी शक्तियाँ उनका शमन करती आयी हैं। आज के दौर में कुछ आसुरी शक्तियाँ हिन्दुस्तान के मूल चरित्र और यहाँ की संस्कृति की मूल प्रकृति को बदलने पर आमादा हैं। ज़िया भाई उनके खि़लाफ़ हमारी बुलन्द आवाज़ थे। वे हिन्दुस्तान की संस्कृति में रचे-बसे थे। सहिष्णुता, संवेदनशीलता, व्यापकता, जीवन्तता और अन्योन्याश्रयिता के उदात्त मूल्यों को वे जीवन में जी रहे थे। उन्हें पक्का यक़ीन था कि हिन्दुस्तानी संस्कृति सबरंग है और उसका हर रंग चटक है। अगर उसे एकरंग किया जायेगा, तो वह बेरंग या बदरंग हो जायेगी।

ज़िया भाई के विविधता-भरे व्यक्तित्व का एक ज़बरदस्त पहलू था कि वे देश की अर्थरचना को लेकर बेहद गम्भीर थे। आज़ादी के बाद उन्होंने देश में सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के अधिष्ठान का दौर करीब़ से देखा था। इसीलिए वे औने-पौने दामों पर बेशक़ीमती सरकारी उपक्रमों को ठिकाने लगाने की प्रवृत्ति के सख़्त खि़लाफ़ थे। मज़दूरों, किसानों, कामगारों, कारोबारियों, नौजवानों, स्वरोज़गारी लोगों और आम जनों की बदहाली बढ़ाने वाली नीतियों का हमेशा पुरज़ोर विरोध करते रहे हैं, ज़िया भाई। देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के औपनिवेशिक मकड़जाल में बुरी तरह फँसता जा रहा है, उसका विरोध करने के लिए वे आज़ादी बचाओ आन्दोलन के सिपाही बन गये थे। प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक उपक्रमों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले करते जाने को वे देश की अर्थव्यवस्था के पुनरौपनिवेशीकरण (Recolonisation) के रूप में देखते थे।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गाँधी भवन स्थित सभाकक्ष में हर रविवार को ज्वलन्त, तात्कालिक या समसामयिक विषयों पर विचार-गोष्ठियाँ हुआ करती थीं जिनमें विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों और समाजकर्मियों के व्याख्यान होते थे। उनमें कारपोरेट-नीत भूमण्डलीकरण, स्वदेशीमूलक स्थानीयकरण, सामुदायिक स्वराज आदि से जुड़े विविध पहलुओं पर चर्चाएँ और बहसें हुआ करती थीं। उनमें ज़िया भाई अक़्सर शिरकत किया करते थे। वे पूरी तैयारी के साथ आते थे। उनके बैग में पत्र-पत्रिकाओं के अद्यतन अंकों की प्रतियाँ रहा करती थीं जिनमें से वे प्रासंगिक, अंश, उद्धरण, तथ्य, आँकड़े, वक्तव्य आदि प्रस्तुत किया करते थे।

ज़िया भाई ने सम्पूर्ण सार्थक जीवन निष्ठा और ईमानदारी के साथ जिया था। उनके देहावसान से इलाहाबाद ने अपना सबसे अनमोल रतन खोया है। उनकी स्मृतियों को सलाम।



कृष्णस्वरूप आनन्दी