कल स्मिता पाटिल की पुण्यतिथि थी।कल लिख नहीं पाया ।आप पढ़ लेंगे तो अच्छा लगेगा । अविस्मरणीय स्मिता!
सत्तर के दशक से मैंने दुर्ग सिविल न्यायालय में वकालत करनी शुरू की थी। बमुश्किल दो तीन बरस हुए होंगे। हबीब तनवीर से आत्मीय परिचय होने के कारण उनकी खबर आई कि, वे कुछ लोगों के साथ मेरे दफ्तर आ रहे हैं। नाम नहीं बताए। स्टेशन रोड में एक किराए के मकान में प्रथम तल पर मेरा आॅफिस था। हबीब साहब तीन लोगों के साथ आए थे। श्याम बेनेगल को मैं जानता था। उन्होंने आते ही तपाक से मुझसे हाथ मिलाया। ऐसे मिले मानो वर्षों से जानते हैं। मुझे मालूम था कि दुर्ग के निकट स्थित ग्राम चंदखुरी के स्थानीय चर्म कारीगरों द्वारा बनाई गई पूरी छत्तीसगढ़ी नस्ल की सैंडिलें जिन्हें भदई या भदही कहते हैं, पहनने में उन्हें बहुत सुख मिलता था। उस दिन भी पहने हुए थे। वे दरअसल एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में आए थे। जहां तक याद है शायद चरणदास चोर की। मुझसे कुछ स्पाॅट या बाह्य स्थल दुर्ग के निकट जानने चाहे जहां उनके बताए कथानक के अनुरूप दृश्य की शूटिंग की जा सके। जो कुछ मेरी समझ थी, वे सब जगहें मैंने उन्हें विस्तार से बता दीं।
सामने बालकनी में जाकर श्याम बेनेगल ने नीचे देखा। सड़क की दूसरी ओर पटरे (प्लैटफार्म) पर एक धोबी कपड़ों पर इस्तरी कर रहा था। वह दृश्य उन्हें बहुत अच्छा लगा और उनका कैमरा तुरंत खिल उठा। दुर्ग की सबसे मशहूर कचौरियां मिलने वाली जलाराम की दूूकान ठीक सामने थी। उन सबको कचैरियां और मशहूर पेडे़ खिलाए गए। मेरी पत्नी भी साथ थीं। उन्हें फिल्मों में मुझसे ज्यादा रुचि हैै। एक खूबसूरत महिला साथ आई थी। जैसे कुछ भूलते हुए याद करते हबीब तनवीर ने परिचय कराया ये सबा जै़दी हैं। तब मुझे उनकी रचनात्मकता, कला के प्रति उनकी लगन और समझ तथा तब तक की उनकी भूमिका के बारे में कुछ मालूम होने का सवाल ही नहीं था। यह तो बाद में पता चला कि वे मशहूर शायर हाली की वंशज हैं और उन्होंने काफी सार्थक रचनात्मक काम किया है। उनसे बातें करना खुशगवार मौसम बुनने जैसा था। उनमें भी हमारी जिज्ञासाओं को शांत करने की ललक थी।![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixJPca9Hji-eN4oSOOB7wGMJGP1KUtoPvjNFIP3aA2GbWSc7y0XlFEUQXtKQu0r9pgE9BXzTLQnhCi-i5jyx2H8cR1hQ3R8Y4e8R5q1ZstVpJ-l0POP6tV63uC_tqnCxEgU8zV-EywMZo/)
एक और युवती आई थी। सांवले नाकनक्श, तीखी बोलती हुई आंखें, नीले रंग की जींस और मटमैले जामुनी रंग की टी शर्ट पहने हुए। नजरें तीखी थीं लेकिन चेहरे पर कोई मेकअप नहीं किया था। चलताऊ ढंग से हबीब साहब ने परिचय कराया ये स्मिता पाटिल हैं। उन्हें लगा हमने नाम तो सुन रखा होगा। लेकिन तब तक स्मिता पाटिल से प्रभावित होने का अंकुर मुझमें फूटा नहीं था। उनकी लगभग अनदेखी करते सबा जै़दी से बतियाने में ज्यादा सौंदर्यात्मक सार्थक कला क्षण महसूस होता रहा था। ठीक वैसा जैसे मसालेदार कचैरियां और स्वादिष्ट पेेड़े खाने में मिलता हैं। वे सीढ़ियां उतर गए, चले गए।
बाद के वर्षों में स्मिता पाटिल के अभिनय के समुद्र में ज्वार आया। तब कोफ्त हुई और अब तक हो रही है कि वह मनहूस दिन हमें क्यों नहीं समझा पाया कि स्मिता पाटिल से बहुत देर तक गुफ्तगू करनी चाहिए थी। बल्कि उनका पता भी ले लेना चाहिए था। स्मिता बीच बीच में अपनी ओर से पहल करने कुछ कहतीं भी तो हम उनकी तरफ मुनासिब ध्यान नहीं देकर बेअदबी भी दिखा रहे थे। हमें ऐसा भी लगता यह महिला हमारे और सबा ज़ैदी के वार्तालाप के बीच हस्तक्षेप है। हमारी वह बेरुखी आज हमारे चेहरे पर विद्रूप की फसल उगा रही है। हमने ऐसा क्यों किया? वह हमें नहीं करना चाहिए था। एक संभावना की भ्रूूण हत्या हमने ही कर दी। भ्रूण हत्या तो स्मिता के कलात्मक जीवन की भी हो गई जो परवान चढ़ते चढ़ते कुदरत के कहर से नीचे मौत के मुंह में ढहा दिया गया।
स्मिता की आंखें आज सवाल पूछ रही हैं। वे कितनी बोलती हुई थीं। वे आवाज़ में उस दिन भी हमें देख रही थीं। आज भी देख रही हैं। हीरे को पत्थर समझा!
kanak tiwari