खेती और किसान संकट से गुजर रहे हैं। सिर्फ भारत में ही नहीं, अमरीका, यूरोप और विकसित देशों में भी। देश में इस संकट का अंदाजा इससे लगाएं कि 1995 से पिछले 25 साल में साढ़े तीन लाख से ज्यादा किसान और खेती मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं।यह आधिकारिक आंकड़ा है, जिसे असल स्थिति से कम ही माना जाता है। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओ.ई.सी.डी.) की रिपोर्ट है कि वर्ष 2000 से 2016-17 तक कुल 16 साल में किसानों को 45 लाख करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ है अर्थात हर साल 2.64 लाख करोड़ रुपए। इस रिपोर्ट पर मीडिया में कहीं कोई बड़ी चर्चा नहीं हुई। खेती लगातार नुक्सान में जा रही है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एन.एस.ओ.) ने 2016 में बताया था कि देश के 17 राज्यों में एक किसान परिवार की वाॢषक आय औसतन 20 हजार रुपए सालाना है। मात्र 20 हजार रुपए में एक परिवार पूरे साल कैसे गुजारा कर सकता है, यह सोचने की बात है। किसानों के लिए संकट की यह स्थिति कैसे आई, इसकी वजह विकास का वह मॉडल है, जो मानता है कि औद्योगीकरण में ही विकास निहित है। इस विकास मॉडल का डिजाइन ऐसा बनाया गया है कि लोग गांवों से पलायन कर शहरों की ओर आएं। खाद्य कीमतों को कम रखा जाए और श्रम सस्ता हो। 1996 में विश्व बैंक का यह मानना था कि अगले 20 साल में भारत में जितने लोग शहरों की ओर पलायन करेंगे, उनकी संख्या इंगलैंड, फ्रांस और जर्मनी की कुल जनसंख्या से दोगुनी होगी। इन तीनों यूरोपीय देशों की कुल जनसंख्या तब 20 करोड़ थी। अत: यह अनुमान था कि भारत में 2015 तक 40 करोड़ लोग गांवों से पलायन कर शहरों में आ जाएंगे। यह अनुमान असल में विश्व बैंक की चेतावनी नहीं था बल्कि एक निर्देश था, जो विकास मॉडल के सपने के चारों ओर बुना गया था। इसी वजह से लोग गांवों से निकलकर बड़ी संख्या में मजदूरी के लिए शहर आए। यह इतने लोगों को कृषि शरणार्थी बनाने जैसा था। मगर कोरोना लॉकडाऊन ने कार्पोरेट को वरीयता वाले इस विकास मॉडल की पोल दो दिन में ही खोलकर रख दी। लॉकडाऊन की घोषणा के दो दिन बाद ही शहरों से गांवों की ओर उल्टा पलायन शुरू हो गया। शहरों से अनुमानित आठ करोड़ लोग वापस गांवों की ओर गए। यह पलायन बताता है कि इस नए विकास मॉडल ने कृषि मजदूरों और किसानों को शहरों में सिर्फ दिहाड़ी मजदूर बनाया। विकास का यह ढांचा ऐसा था जो दो दिन का झटका भी बर्दाश्त नहीं कर पाया। यह एक ऐसा मॉडल है जिसे पिछले 30 साल में दुनिया के विकसित देशों ने खरबों डॉलर की छूट और सबसिडियां देकर खड़ा किया है। इसलिए विकास के इस मॉडल पर पुनॢवचार की जरूरत है। अब एक नया सामान्य मॉडल चाहिए। कृषि क्षेत्र का विकास और किसानों की आय वृद्धि पिछले 20 साल में नाममात्र हुई है। वित्तवर्ष 2011-12 से 2015-16 के बीच देश में किसानों की वाॢषक आय वृद्धि आधे फीसदी से भी कम रही। कृषि के इस संकट को आप न्यूनतम समर्थन मूल्य वृद्धि के आंकड़ों से आसानी से समझ सकते हैं। 1970 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपए प्रति क्विंटल था, जो 2015 तक बढ़कर 1450 रुपए हुआ। इस तरह 45 साल में गेहूं के समर्थन मूल्य में सिर्फ 19 गुणा वृद्धि हुई, जबकि एक सरकारी कर्मचारी की आय इस अवधि में 120 से 150 गुणा, प्रोफैसर 150-170 गुणा और स्कूल टीचर्स की 280 से 320 गुणा तक बढ़ी। शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया था कि देश में सिर्फ 6 प्रतिशत किसान ही अपनी उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच पाते हैं। इनमें भी दो ही फसलें गेहूं और धान प्रमुख हैं। यह लाभ भी अधिकांश पंजाब और हरियाणा के किसानों तक सीमित है। इन दोनों राज्यों में कृषि उपज विपणन (ए.पी.एम.सी.) मंडियों और वहां तक उपज पहुंचाने के लिए सड़कों की उचित व्यवस्था है, जो सुनिश्चित करती है कि किसान की उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिके। यही वजह है कि हरित क्रांति के बाद यहां के किसान अन्य राज्यों के किसानों की तुलना में थोड़ा बेहतर स्थिति में आ गए थे। देश के 94 प्रतिशत किसानों को अब भी अपनी उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता। ये किसान निजी क्षेत्र की खरीद के भरोसे हैं। अगर निजी क्षेत्र किसानों को उचित दाम देने में सक्षम होता तो अमरीका और यूरोप के किसानों की हालत क्यों बदतर होती। उनके पास एक देश, एक मंडी तो क्या पूरी दुनिया उनके लिए एक है। अमरीका ने पिछले 25 साल में अपने किसानों को 425 अरब डॉलर की सबसिडी दी है। इसके बावजूद वहां के किसानों पर आज इतना ही (425 अरब डॉलर) कर्ज है। वहां ग्रामीण क्षेत्र में आत्महत्या की दर शहरी क्षेत्र से 45 प्रतिशत ज्यादा है। भारत के किसान को हर साल सिर्फ 281 डॉलर के बराबर सबसिडी मिलती है। इसके बावजूद उसने देश के खाद्यान्न भंडारों को भर रखा है। देश में इस समय 23 कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है। मगर सिवाय गेहूं और धान के यह कपास और दालों पर ही थोड़े किसानों को मिलता है। कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत करना है तो सरकार को यह चाहिए कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य को इन 23 फसलों पर किसानों का कानूनी अधिकार बनाए और यह सुनिश्चित करे कि इससे नीचे खरीद नहीं हो पाएगी। कृषि क्षेत्र से देश की 50 फीसदी आबादी को रोजगार मिलता है और उसमें इतना कम निवेश हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का बहुत अच्छा नारा दिया है। इसका रास्ता कृषि क्षेत्र से होकर ही जाता हैै। हम आशा करते हैं कि आने वाले समय में खेती पर अधिक ध्यान दिया जाएगा और इसी दृष्टिकोण से प्रधानमंत्री का सबका साथ, सबका विकास का सपना भी पूरा होगा।
@ दविंदर शर्मा , कृषि विशेषज्ञ