1968 से 1972 के बीच तीन - तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री, इंदिरा गांधी की सरकार में दो साल केंद्रीय शहरी विकास मंत्री और राज्यसभा तथा विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे स्व. भोला पासवान शास्त्री अपनी ईमानदारी, सादगी, चरित्र और फक्कड़पन के लिए आज भी याद किए जाते हैं। बिहार के पूर्णिया जिले के छोटे से गांव बैरगाछी में जन्मे भोला बाबू सूबे के अकेले मुख्यमंत्री रहे हैं जो पैदल ही अपने कार्यालय जाते थे। अपने आगे-पीछे सैकड़ों गाड़ियों का काफ़िला लेकर चलने वाले मुख्यमंत्रियों को देखने के अभ्यस्त युवाओं को यक़ीन नहीं होगा कि उनके पास कभी अपनी गाड़ी नहीं रही और न सरकारी गाड़ियों का इस्तेमाल उन्होंने कभी व्यक्तिगत कामों में किया। उदारता ऐसी कि वेतन और भत्ते की ज्यादातर रकम ज़रूरतमंदों में बांट दिया करते थे। अपनी जड़ों से लगाव ऐसा कि औपचारिक और खर्चीली सभाएं आयोजित करने के बजाय पेड़ के नीचे जमीन पर कंबल बिछाकर अधिकारियों और लोगों से संवाद करना ज्यादा पसंद करते थे। सरलता ऐसी कि मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतरने के अगले ही दिन वे पटना की सड़कों पर रिक्शे से घूमने और लोगों से मिलने-जुलने निकल गए। मरे तो खाते में इतने पैसे नहीं थे कि श्राद्ध-कर्म संपन्न किया जा सके। जिला प्रशासन को उनके अंतिम संस्कार का इंतजाम करना पड़ा था। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और व्यक्तिगत संपत्ति से खुद को दूर रखने के कारण उन्हें बिहार की राजनीति का 'विदेह' कहा जाता है। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी, लेकिन पूर्णिया के उनके पैतृक गांव मे उनके परिजन आज भी खेती-मजदूरी करते हैं और कच्चे मकानों में रहते हैं। उस दौर में बिहार के इस दलित मुख्यमंत्री का क्रेज ऐसा था कि तब के युवाओं में उनके जैसे बाल-दाढ़ी रखने का फैशन चल पड़ा था।
आज बिहार-विभूति स्व भोला पासवान शास्त्री की जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !
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