एक रुपए जुर्माने वाला फ़ैसला...


किसी भी संस्थान में ‘आई’ (I) यानि ‘मैं’ की बड़ी अहमियत है। ‘मैं’ स्वयं में अहंकार का बोध कराता है। यह बना भी सकता है और बर्बाद भी कर सकता है। इसको समझने के लिए अंग्रेज़ी के दो शब्द ही काफ़ी हैं। Running और Ruining, Running का एक मतलब संचालन भी होता है और Ruining का अर्थ विनाश। दोनों में अंतर मात्र ru के बाद i का है। ru (running) के बाद डबल nn को बदलकर अगर in कर दिया गया तो वह ruining बन जाएगा जिसके मायने बर्बादी है। इसलिए आवश्यक है कि संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थानों को ‘I’ के फ़र्क़ को गंभीरता से समझना चाहिए। वरना संचालन की जगह विनाश तय है। कुछ इस तरह का वाक़या हाल ही में देखने मिला।



हाल ही में न्याय की सर्वोच्च संस्था ने अपने मान-सम्मान और प्रतिष्ठा जो असल में ‘अहंकार’ ही था, का पटाक्षेप एक रुपए के जुर्माने के साथ करते हुए अपने ‘अहम’ को बचा लिया। तो वहीं आपराधिक अवमानना के दोषी सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता ने एक रुपया का जुर्माना भरने की सहमति देते हुए अपने कथित सत्य (अहंकार) को संतुष्ट कर लिया।


दरअसल देखा जाए तो न्याय पालिका और वरिष्ठ अधिवक्ता के बीच जो जंग हुई उसका संविधान, लोकतंत्र और सत्य से कोई सीधा वास्ता नहीं था। वास्ता तब माना जाता जब इसमें जन की प्रत्यक्ष भागीदारी होती, जन तो अपने अधिकारों, कर्तव्यों और प्रगतिवादी सोच से विमुख सन्नाटे के कुंआसे में पड़ी है।


असल में यह लड़ाई तो एक व्यक्ति और एक संस्थान के बीच की थी। हक़ीक़त में संस्थान के पीछे भी व्यक्ति ही था। कह सकते हैं कि दो व्यक्तियों के ‘अहम’ ने देश को विश्वास का और अर्थ का बहुत बड़ा नुक़सान पहुँचाया है। अगर ठेस, अपमान और प्रतिष्ठा इतनी ही मूल्यवान थी तो सजा या जुर्माना भी उतना ही बड़ा होना चाहिए था। लगभग 40 दिनों के भीतर कई बार इस मामले में सुनवाई हुई। लाखों रुपए, बहुमूल्य समय और संसाधन व्यय हुए, सैकड़ों महत्वपूर्ण प्रकरणों की सुनवाई टली, सर्वोच्च न्याय मंदिर की अस्मिता दांव पर लगी रही, फिर भी जुर्माना एक रुपए। यह कहीं से भी न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। सिर्फ़ इतना समझ सकते हैं कि मात्र ‘एक रुपए’ में दोनों के अहंकार को संतुष्टि मिल गई।


यह मान भी लिया जाए कि दोनों पक्ष सत्य के पक्षधर थे। सत्य को बचाने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया। एक सत्य वह भी था जब सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग पाँच न्यायमूर्तिगण मुख्य न्यायाधिपति के रवैए के ख़िलाफ़ और लोकतंत्र तथा संविधान बचाने के लिए मोर्चा खोल दिया था। बाक़ायदा मीडिया में सुप्रीम कोर्ट की प्रशासनिक व्यवस्था को चैलेंज किया था। तब न तो किसी की अवमानना हुई और न किसी के अहम को ठेस लगी। शायद तब सबका अहंकार सुप्त अवस्था में रहा होगा।


बहरहाल आपराधिक अवमानना के मामले में एक रुपए का जुर्माना वाला तीन जजों का फ़ैसला काफ़ी मायने रखेगा। इसका दृष्टांत बनेगा। प्रशांत भूषण रहे न रहें मगर यह फ़ैसला लम्बे वक्त तक क़ायम रहेगा। अब के बाद से हर आपराधिक अवमानना के मामले में इस फ़ैसले की नज़ीर पेश की जाएगी। यह भी मुमकिन है कि अब अवमानना मामलों को हल्के में लिया जाने लगे। सबसे बड़ी अदालत का ‘एक रुपए’ वाला फ़ैसला कईयों के काम आए।


कभी किसी दार्शनिक ने कहा भी था कि ‘मेरा अहंकार ही मेरा बोझ है।’ यह बात सौ टका सही भी है। कोई भी व्यक्ति या संस्थान अपने अहंकारी ताज के लिए कुछ भी कर सकता है, इस प्रवृति को समझना होगा। 


Zaheer Ansari