जहांपनाह..ये एक सरकारी कर्मचारी है,इनके पद का नाम डाकिया है जो आज भी गांवों में घंटी बजाकर चिट्ठियां बांटता है।..सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से बहुत मुश्किल एंव विषम परिस्थितियों में शिक्षा ग्रहण कर पुनः उन्हीं क्षेत्रों में आपके निर्देशित सरकारी कामों को यथा संदेश, चिट्ठी, नौकरी से संबंधित चिट्ठी..बहुत लंबी सूची है, को बखूबी अंजाम देते हैं जो संभवतः लोगों को जोड़ने का काम करते हैं..कितने तो हवाई चप्पल में ही रहते हैं क्योंकि इतने पैसे नहीं कि जूते खरीद लें?और आप निजीकरण की बात करते हैं साहब..और हाँ ऐसे क्षेत्रों में साधारणतया आपकी डिजिटल इंडिया भी काम नहीं करती क्योंकि बिजली की निर्बाध आपूर्ति भी शायद नहीं हो पाती है..तो इनकी क्या गलती क्या निजीकरण से इनकी नौकरी बचेगी?क्या ये कुरियर वाले लोग गांव जाएंगे..शायद नहीं?मत कहिएगा कि स्मार्ट फोन और इंटरनेट.. सोचिएगा जरूर..और बैंकों की बात..तो मात्र दो या तीन कर्मचारियों से ही सरकारी बैंकों को संचालित कर रहें हैं वही मैनेजर बैंक का ताला खैल रहा वही झाड़ू लगा रहा है और बाकि बैंकिंग के काम कर रहा और बड़ी मुश्किल से इंटरनेट आता भी है काम ठीक से नहीं हो पाता तो बड़े अफसरों की झाड़ और ग्रामीण ग्राहकों की परेशानियां अलग ऊपर से कर्मचारियों अधिकारियों से बहस ले देकर जो समय बचा काम किया..क्या इन सारी बातों से निजी बैंक जूझ रहे?इसी बीच कोई दबंग बैंक आकर धमकी दे तो... "अपने जान माल की सुरक्षा स्वयं करें।"जनाब ऐसे सूदूरवर्ती क्षेत्रों में सरकारी बैंक ही खुलते हैं..ना कि यस बैंक और एचडीएफसी बैंक..साहब भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है.. महात्मा गांधी ने कहा था
डाकिया