रुकिए मैं सोच रहा हूँ ,कैसी कविता लिखूँ
किसीने नही कहा कविता लिखने
कोई नहीं चाहता कविता लिखूँ
किसके लिए कविता लिखूँ
जयपुर के भरे बाज़ार में एक बूढ़ी औरत
बैठी है जो रकम- रकम के शानदार
फूल बेच रही थी ,नहीं-नहीं असली नहीं
लेकिन असली से ज्यादा असली लगते थे
हमने ख़रीदना चाहा ,ख़रीदे भी दाम भी कम
ही थे ,बल्कि मुझे लगा कि बहुत कम है ,लेकिन
मेरे साथ वाले लोग मोल-भाव करने लगे
तो मैं भी क्यों शामिल हुआ ,क्यों नहीं
कहा मैंने ,कि अरे इतने कम दामों में तुम्हें
क्या बग़ीचा दे देगी ,यह मैं आज सोचता हूँ
क्या कविता लिखूँ ,ऐसे कोई बेईमानी से
कविता कैसे लिख सकता है
कविता लिखने के लिये इमानदार तो होना ही
चाहिए न ,वरना कोई कैसे किसी का दुख
पकड़ पाएगा ,कैसे वश में कर टोकरी में बंद कर
पाएगा ,कैसे उस आदमी को पकड़ पाएगा मोड़ पर
रुको तुम क्या छुपा कर जा रहे हो तुम्हारी
हँसी में ,मेरे सामने हँसो मत ,कुछ तो बात होगी न
जब वो कहता है कि सब ठीक है
आप ही सोचें
अभी सब ठीक कैसे हो सकता है , कवि को सच्चा
सुलभ ,निडर तो होना होगा न ,लाचार तो वो जो
बता रहा है ,है ही ,बहुत ही सच्चा आदमी होना
होता है कवि को किसी औरत के पास फटकने के लिए
उसकी आत्मा को निकालना सहज नहीं होता है ,जो
कपड़े उतारने से नंगी नहीं होती है ,उसे आत्माओं की तरह
जगाना होता है मंत्रोच्चार से
बहुत इंतज़ार करना होता है
ग़रीब को कविता में लाने के लिए ,वह क्यूँ
तुमको सारे रहस्य बताएगा ,सावधान रहना
वह दुनिया में घूमता बेताल है ,कहीं पीठ पर
लद गया तो कहते रहो दोहे पर दोहे ,खत्म नहीं होगा
पुराण ,खत्म नहीं होगी ग़रीबी ,सहेज कर लाना
उसे कविता में ,लाना जरूर
कविता कैसी लिखूँ ,किस पर लिखूँ ,क्यों लिखूँ
मैंने बताया न ,यह एक अनर्गल ख़्याल है
दुनिया का सबसे फालतू ,लेकिन ज़रूरी
ख़्याल है मैं क्या करूँ ,आप बोर तो हो रहे होंगे
लेकिन उपाय नहीं है ॥
प्रमोद बेड़िया