" आयुर्वेद "

" आयुर्वेद " कविता का अंश
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आयुर्वेद की महक प्रकृति की महक है
वनस्पतियां, तना, छाल, जड़ें, फूल, पत्तियां
बीज और बीज के भीतर की गिरियां और खनिज
जिनमें प्रकट आयुर्वेद
जहां संयम ही स्वास्थ्य है और भोजन भी औषधि
दोषों को नाड़ी की गति से पहचानता हुआ
वात- पित्त- कफ के किले में सेंध लगाता
मुसकुराता है एक ऋषि-
एक वैज्ञानिक अपने शल्य और भेषज ज्ञान से दमकता



हर्र, बहेड़ा, आंवला, सौंठ, तुलसी, पीपल
पर्यावरण ही आयुर्वेद
जो डूब रहा है सभ्यता के उत्तर औद्योगिक समुद्र में
विस्मृति की सीमा पर खड़ा है अनुपान भेद का ज्ञान
वंशलोचन, पारद, शिलाजीत, भृंग, महासुदर्शन
तेजोमय रूप सभी
डूबते हुए अधैर्य के पोखर में गिरते हुए पूंजी के गर्त में


अब कोई नहीं पहचानता जड़ी- बूटियां
जो कहते हैं कि हम पहचानते हैं- वे उद्योग हैं
शहद बनातीं हैं मधुमक्खियां
और कंपनियों के डंक !


पथ्य- अपथ्य की सूची लंबी
फिर भी गुड़, तेल, खटाई, मिर्च- ये चार अपथ्य हमेशा हाजिर
राजवैद्य कब के स्वर्गीय हुए
वैद्य भी अब कहां बचे
जो एक दो हैं वे नब्बे पार कर चुके
सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल भरे हुए हैं
ऎलोपैथी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुए लोगों से
हाथ से छूट चुका है नाड़ी का स्पंदन
च्यवन की भौंचक आत्मा तले
चार रूपये का आंवला बिक रहा है सौ रूपये में
देखिए, चरक घूम रहे हैं बौखलाए हुए पठारों पर
पूछते हुए नीम का पता।


@ कुमार अंबुज Kumar Ambuj