जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने दुनिया को चेतावनी देते हुए पिछले दिनों कहा, " अब समय आ गया है कि कोरोना को लेकर अधिक जिम्मेदारियों का परिचय दिया जाए और टेस्टिंग की संख्या अधिक से अधिक बढाई जाए।

जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने दुनिया को चेतावनी देते हुए पिछले दिनों कहा, " अब समय आ गया है कि कोरोना को लेकर अधिक जिम्मेदारियों का परिचय दिया जाए और टेस्टिंग की संख्या अधिक से अधिक बढाई जाए। संक्रमण के तथ्यों को छुपाना सत्य पर पर्दा डालने जैसा है। हम सबको सत्य का सामना करने को तैयार होना होगा।"


मर्केल की इस चेतावनी के आलोक में हम अपने देश में देखें तो आज भी सत्य से मुंह छुपाने की सरकारी कोशिशें बदस्तूर जारी हैं। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि सरकारी आंकड़ों में संक्रमितों की जितनी संख्या बताई जा रही है, वास्तविक रूप से यह संख्या उससे बहुत अधिक है।


जाहिर है, बिना टेस्ट किये संक्रमित व्यक्ति का बेरोकटोक घूमना सबके लिये अनर्थकारी हो सकता है। यह हो भी रहा है।


इतने दिनों तक लॉकडाउन लगाए रखने के बावजूद महामारी से मुकाबले के लिये 'हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर' को उस तरह सुदृढ़ नहीं किया जा सका, जैसा होना चाहिये था।


दरअसल, ध्वस्त खंडहरों में जान डालना इतना आसान भी नहीं है। हमारी सरकारों ने सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को खंडहरों में तब्दील होने दिया और जनता इन मामलों से पूरी तरह निरपेक्ष रही।


तो...आज हमारी प्राथमिकताएं हमारी नियति बन कर सामने हैं।


यूपी-बिहार की स्थिति तो और भी बुरी है। इन दोनों राज्यों की राजनीति जनहित के मुद्दों से जितनी दूर रही, आज उसका हश्र हम सब भोगने को अभिशप्त हैं।


प्रायः एकमत से विशेषज्ञ मान रहे हैं कि बिहार की स्थिति जितनी बुरी हो चुकी है, उसका अंदाजा दिए जा रहे सरकारी आंकड़ों से बिल्कुल नहीं लग पा रहा।


बिहार में टेस्टिंग का औसत सबसे कम है।
यहां का हेल्थ ढांचा मृतप्राय है। तो, अपनी कमियों पर पर्दा डालने के लिये संक्रमितों की वास्तविक संख्या को ही छुपाने की रणनीति बना ली गई लगती है।


एंजेला मर्केल की चेतावनी कि, "सत्य का सामना किये बगैर और कोई चारा नहीं" का कोई संज्ञान नीतीश कुमार लेंगे, इसकी संभावना कम है।


लगातार 15 वर्षों का उनका कथित सुशासन शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जरूरी मसलों पर अक्सर एक्सपोज होता रहा है। लेकिन, कोरोना संकट ने तो बिहार के जर्जर हेल्थ ढांचे को पूरी तरह बेपर्द कर दिया।


तब, जबकि घोषित रूप से बिहार में राष्ट्रीय औसत के मुकाबले संक्रमितों की संख्या कम रही, बिहार का हेल्थ ढांचा शुरुआत में ही दम तोड़ गया।


सुशासन और जंगल राज को फिर से और व्यापक तौर पर परिभाषित करने की जरूरत है। अखबार और टीवी वालों के फतवों से राज्य की वास्तविक स्थिति को देखने का दृष्टिकोण बदलना होगा।


अभी दो-तीन दिन पहले रवीश कुमार ने प्राइम टाइम में बिहार के हेल्थ सेक्टर की बदहाली का जो विवरण दिया, कुछ और चैनलों पर जिस तरह बिहार अब सुर्खियों में आ रहा है, यह नीतीश कुमार की अन्य कुछ सकारात्मक उपलब्धियों के समानांतर नकारात्मकता की एक बड़ी रेखा खींचता प्रतीत होता है।


जो राजा जनता की शिक्षा और स्वास्थ्य के ढांचे को खंडहरों के मलबों में तब्दील होने दे, उसकी अन्य उपलब्धियां,अगर वे हैं तो, उतनी महत्वपूर्ण क्यों मानी जाएं?


बिहार सरकार ने राजधानी पटना के सुविधा सम्पन्न अस्पतालों को वीआईपी के लिये लगभग रिजर्व ही करवा दिया है। टेस्टिंग भी वीआईपी तबके का ही अधिक हो रहा है।


आम लोग जिन फजीहतों को झेल रहे हैं यह किसी भी शासन के लिये शर्मनाक है, अगर शर्म आती है तो।


जान बूझ कर सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर्स और सहयोगी स्टाफ की नियुक्तियों को हतोत्साहित किया जाता रहा, बढ़ती जरूरतों के हिंसाब से फंड की आपूर्त्ति को नहीं बढ़ाया गया, उल्टे कई आवश्यक मदों में फंड की कटौती की जाती रही।


तो...आज इस महामारी काल में सरकारी अस्पतालों से अधिक उम्मीदें रखना बेमानी है। खुद भी संक्रमण से जूझते डॉक्टर और सहयोगी स्टाफ जो भी कर पा रहे हैं वही बहुत है।


"आपदा को अवसर" मान कर निजी अस्पताल तो लूटने के लिए तैयार बैठे ही हैं। हांलाकि, लुटने के लिये भी औकात की जरूरत होती है जो बिहार की 90 प्रतिशत जनता के पास नहीं है।


बीते 50 वर्षों की बिहार की राजनीति आज की पीढ़ी के सामने अभिशाप बन कर आ खड़ी हुई है जब किसी आकस्मिक महामारी के सामने सिस्टम लाचार मुद्रा में समर्पण कर चुका है और आम लोगों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।


आप टेस्ट नहीं करेंगे इससे संक्रमण की संख्या कम नहीं होगी। यह सत्य से मुंह छुपाना है।


क्या कोई व्यक्ति, या कोई राजनेता...या कोई सिस्टम रोग और महामारी से भी मुंह छुपा सकता है?


जाहिर है...नहीं।


जैसा कि बीते महीने बीबीसी ने कहा था कि कोरोना संकट राजनेताओं की नेतृत्व क्षमता और जन सापेक्षता की कसौटी बन कर आया है, तो...उस कसौटी पर नीतीश कुमार कहां ठहरते हैं?


सम्भव है, नीतीश कुमार फिर से अगला चुनाव जीत जाएं। लेकिन, चुनाव जीत जाना नेतृत्व की जन सापेक्षता की कसौटी नहीं हो सकता। वह तो नरेंद्र मोदी भी लगातार दो बार जीत चुके हैं।


courtsy-Hemant Kumar Jha