कोरोना संकट को लेकर केन्द्र सरकार ने जनता को राहत देने के लिए तरह-तरह की घोषणाएँ कीं। वित्त मंत्री तो पाँच दिनों तक अपने पैकेज़ों का पिटारा खोलकर 21 लाख करोड़ रुपये की कहानियाँ सुनाती रहीं। शुरुआत में लगा कि सरकार यथा सम्भव मौजूदा हालात की चुनौतियों को समझते हुए संवेदनशीलता दिखा रही है। लेकिन अब साफ़ हो रहा है कि सारी नहीं तो कई घोषणाएँ सिर्फ़ ‘आई वॉश’ हैं, छलावा हैं, वादा-ख़िलाफ़ी हैं और जनता की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश हैं। सुप्रीम कोर्ट में ऐसे ही तीन वादों की पोल खुल चुकी है। पहली, लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों को पूरा वेतन देने की तो दूसरी, EMI के भुगतान में तीन महीने की राहत देने की और तीसरी, प्रवासियों को उनके घर भेजने की।
अब वेतन है ‘आपसी मसला’
केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने 29 मार्च को आदेश जारी किया था कि सभी उद्योगों, दुकानों और व्यवसायिक संस्थाओं को अपने कर्मचारियों को लॉकडाउन की अवधि का पूरा वेतन नियत वक़्त पर ही देना होगा। आपदा प्रबन्धन क़ानून के तहत जारी इसी आदेश में मकान मालिकों को हिदायत दी गयी थी कि वो किसी पर किराये के लिए दबाव नहीं डालेंगे। अन्यथा, ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी। इस आदेश से सरकार को जो वाहवाही या हमदर्दी बटोरनी थी, वो हो गयी तो 18 मई को इसे अचानक वापस ले लिया गया, क्योंकि वेतन देने वालों ने अपने हाथ ये कहकर खड़े कर दिये कि उनके पास आमदनी नहीं है तो वेतन कैसे दे सकते हैं? सरकार को बेशक़ लोगों की मदद के लिए आगे आना चाहिए था।
लेकिन सरकार ने 29 मार्च का आदेश किसी दूरदर्शिता के साथ तो दिया ही नहीं था। उसकी तो अपनी माली हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि उसने पूरे देश को ‘आत्मनिर्भर’ बनने का पैग़ाम दिया और निकल ली। ख़ैर, जनता की तकलीफ़ों को लेकर जब सारा मामला सुप्रीम कोर्ट जा पहुँचा तो वहाँ सरकार ने सफ़ाई दी कि ‘वेतन, कम्पनी और कर्मचारी का आपसी मामला है।
हम इसमें दख़ल नहीं दे सकते।’ अब सोचने की बात ये है कि क्या ‘आपसी मामला’ वाली परिभाषा की समझ सरकार को 29 मार्च को नहीं थी? सरकार को तब ये समझ में क्यों नहीं आया कि मुट्ठी भर कम्पनियों को छोड़कर बाक़ी लोग आमदनी के बग़ैर कैसे वेतन देंगे? उस वक़्त ‘आदेश’ के बजाय सरकार ‘प्रवचन’ देती तो बात कुछ और होती। लेकिन सरकार ने ये क्यों नहीं सोचा कि क्या उसके पास आदेश की अवहेलना करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की क्षमता कभी हो सकती है?
EMI पर भी ठगी
इसी तरह, भारतीय रिज़र्व बैंक ने 27 मार्च को कहा कि उसने सभी बैंकों से कर्ज़ की किस्तों (EMI) की वसूली में तीन महीने की ढील देने को कहा है। इस एलान को लेकर ये अफ़वाह फैलायी गयी कि ‘तीन महीने की EMI माफ़’। जल्द ही लोगों के समझ में आ गया कि वो ठगे गये हैं, क्योंकि असलियत माफ़ी की नहीं, बल्कि इसे नहीं भरने वालों को तीन महीने तक ‘डिफाल्टर’ करार नहीं देने की थी। ख़ैर, आगे चलकर जब सरकार ने लघु, छोटे और मझोले उद्योगों (MSME) के लिए और उदार एलान किये तो सारा मसला घूमते-फिरते सुप्रीम कोर्ट जा पहुँचा। रिज़र्व बैंक पर आरोप लगा कि वो तीन महीने की राहत के नाम पर और ज़्यादा वसूली करवाना चाहता है।
सुप्रीम कोर्ट ने रिज़र्व बैंक से जवाब-तलब किया तो सरकार की ओर से सफ़ाई दी गयी कि वो ‘तीन महीने की EMI माफ़’ करने की दशा में नहीं है, क्योंकि इससे बैंकों को 2 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा और सरकार इसकी भरपाई करने की हालात में नहीं है। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अभी कोई आदेश नहीं दिया है। लेकिन सरकार और RBI के रवैये से इतना तो साफ़ दिख रहा है कि देश के विशाल मध्यम वर्ग की उम्मीदों पर पानी फिर चुका है। जबकि इसी मध्यम वर्ग पर नौकरियों में हुई छंटनी, बेरोज़गारी और आमदनी के गिरने की न सिर्फ़ तगड़ी मार पड़ी है, बल्कि कम से कम अगले डेढ़-दो साल तक इसका बहुत बुरा हाल भी रहने वाला है।
15 दिन में इच्छुक प्रवासियों को घर भेजें
प्रवासी मज़दूरों की घर-वापसी को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दाख़िल हुईं। अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकारें 15 दिनों में इच्छुक प्रवासियों को उनके घर भेजें। प्रवासियों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है, लेकिन सरकार पूरी बेशर्मी से कहती है कि उसका प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ रहा है। चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर लम्बी सड़कों को पैदल नापने के लिए मजबूर हुए लाखों लोगों की दिल दहलाने वाले किस्से तो जनता ने ख़ूब देखे-सुने। दो दिन के रास्ते को पाँच-सात दिनों में तय करने का ‘शानदार’ काम भी पहली बार इसी कोरोना संकट में हुआ। ट्रेन में भूखे-प्यारे ज़िन्दगी और मौत से जंग करने की उपलब्धि भी इसी दौर की है। ज़ाहिर है, ये उपलब्धि ‘अच्छे दिन’ की बदौलत पैदा हुई ‘आत्म निर्भरता’ की वजह से ही मुमकिन हुई है।
वैसे तो 2016 में आर्थिक सर्वे में ये बताया जा चुका है कि देश के 48 करोड़ कामगारों में कम से कम एक तिहाई प्रवासी मज़दूर हैं। अभी पैकेज़ों की घोषणा करते वक़्त भी वित्तमंत्री ने इन्हें 8 करोड़ तो माना ही है। लेकिन 24 मार्च को जब 4 घंटे के नोटिस पर पूरे देश में लॉकडाउन का फ़ैसला लिया गया तब सरकार और इसके सलाहकारों ने क्यों नहीं सोचा कि इसके क्या-क्या अंज़ाम होंगे? यदि मान भी लें कि लॉकडाउन सफल रहा। लाखों-करोड़ों लोगों को सरकार ने कोरोना की बलि चढ़ने से बचा लिया तो फिर ऐसे वक़्त में ‘अनलॉक-1’ कैसे हो सकता है, जबकि अभी कोरोना संकट जंगल की आग की तरह बेकाबू है।
लॉकडाउन को जिस तरह से और जिन वजहों से वापस लिया गया है, उससे साफ़ दिख रहा है कि सरकार ने 130 करोड़ लोगों को उनकी किस्मत पर छोड़ दिया है। हमारे अस्पताल चरमरा चुके हैं। कोरोना के नाम पर होने वाली ख़रीदारी में भ्रष्टाचार के मामले रोज़ाना उजागर हो रहे हैं। देश के 733 में से 530 ज़िलों में अभी तक टेस्टिंग की व्यवस्था नहीं बन पायी है। हालात बहुत ख़राब हैं। लोगों को इलाज़ नहीं मिल पा रहा है। बेकारी और भुखमरी के ऐसे हालात हैं, जैसा पहला कभी नहीं रहा। अर्थव्यवस्था औंधे मुँह धँसी हुई है। जनता को साफ़ दिख रहा है कि छह साल में कितना शानदार विकास हुआ कि देश के पास दो महीने जीने-खाने की ताक़त नहीं रही। कोरोना संकट, मोदी सरकार के तमाम खोखले दावों की ऐसी पोल खोल रहा कि अब भक्तों की भी रूह काँपने लगी है।
(मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। तीन दशक लम्बे पेशेवर अनुभव के दौरान इन्होंने दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, उदयपुर और मुम्बई स्थित न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। अभी दिल्ली में रहते हैं।)
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