लोहिया रमामित्रा शायद उस पीढी में पहले अनोखे और एकदम पारदर्शी रिश्ते में रहे जिसे आजकल लिवइन कहा जाता है।

आज़ादी की लड़ाई चल रही थी। उसी दौरान युवा उत्साही समाजवादी डा० लोहिया जर्मनी के हम्बोल्ट विवि से अर्थशास्त्र में अपना पीएचडी शोध निबंध जमा कर, अपने गाइड प्रोफ़ेसर से स्वीकृति ले करअगले दिन ही भारत के लिये रवाना हो लिये । पानी के जहाज़ ही चलते थे उन दिनों। मद्रास के बंदरगाह पर उतरे तो जेब में एक दमड़ी भी न थी। अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार दि हिंदू के दफ़्तर पहुँचे , संपादक से मिल कर तुरंत एक लेख लिखा और मेहनताना लेकर कोलकाता अपने घर रवाना हुये। पिता श्री हीरालाल लोहिया पहले से ही स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे। कुछ दिनों बाद इलाहाबाद आ गये और जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित कांग्रेस के विदेशनीति प्रकोष्ठ में सचिव बन कर भारत की आजादी का बृहत्तर काम देखने लगे और दुनिया की अद्यतन स्थिति पर नज़र ।
इलाहाबाद में एक से बढ़ कर सुशिक्षित सुसंस्कृत दीवाने युवजन टोली में थे। मिलते जुलते काम करते करते पूर्णिमा बैनर्जी नाम की सुंदर युवजन कांग्रेस कार्यकर्ता से अनुराग बढ़ गया और दोनों अक्सर एक दूसरे के साथ ही काम करते दिखते। महादेवी वर्मा ने इसी युवा युगल के बाबत उसी समय का एक अद्भुत वर्णन लिखा है जब ये दोनों उनके घर अपने काम के किसी सिलसिले में गये थे।
१९४२ आ गया। करेंगें या मरेंगें। आज़ादी की लड़ाई अपने पूरे उफान पर आ गई। लोहिया ने बंबई से गुप्त आजाद रेडियो प्रसारण शुरु किया। कुछ अन्य युवजन भी उस बहादुरी में शामिल हुये। उषा मेहता की भी आवाज़ थी रेडियो तरंगों में। अंग्रेज पुलिस ढूँढने लगी कि रेडियो है किधर ? प्रमुख कार्यकर्ताओं को तो आवाज़ से ही पहचनवाया लिया और सीआईडी पीछे लग गई पर कई महीनों तक असफल रही। डा० लोहिया थे प्रमुख निशाने पर क्योंकि पूरी कारस्तानी ही उनकी सिद्ध हो रही थी ।अंतत: स्थान ढूंढ निकाला पुलिस ने और सब युवजन फ़रार हो गये ! पुलिस पीछे पीछे लगी रही लोहिया के और आख़िर में उत्तरप्रदेश नेपाल सीमा के पास कहीं गिरफ़्तार कर पायी। अव्वल विद्रोही का दर्जा था तो लाहौर क़िले की जेल में ले जाये गये जहॉं पूछताछ और यातनाओं का लंबा सिलसिला चला। लोहिया का मुँह नहीं खुला और शरीर पर अकल्पनीय घात हुये , आँखों में ठंडा पानी डाल डाल कर हफ्तों जगाये रखा गया। यातना की अंग्रेज ख़ुफ़िया पुलिस टीम वहीं जिसने भगतसिंह को टॉर्चर किया था। क़रीब डेढपौने दो बरस बाद गांधी जी के हस्तक्षेप से छूटे और गोवा में अपने सहपाठी मित्र डा० मेंजिस के यहॉं कुछ दिन आराम करने पहुँचे पर चार दिन भी नहीं हो पाये कि पुर्तगाली राज से गोवामुक्ति आंदोलन की शुरुआत कर दी , गिरफ़्तार होकर उत्तरी गोवा अग्वाड क़िले की अंधेरी कोठरी में क़ैद। कालांतर में जब गोवा से कर्नाटक की सीमा पर ले जाकर छोड़ा तो पुन: गोवा में प्रवेश और फिर सभायें और फिर क़ैद।
फिर गांधीजी ने हस्तक्षेप किया , रिहा हुये और भारत की आज़ादी को प्राथमिकता पर रखने के लिये कहा। नेहरू ने समझाया कि गोवा तो हम जब चाहेंगें भारत की आज़ादी के बाद ले ही लेंगें । बरसों बरस तक आज़ादी के लिये दर बदर जेल क़ैद यातनायें चलीं। इस झंझावाती सफ़र में पूर्णिमा बैनर्जी कहीं छूट गईं।
१९३४ में कांग्रेस में काम कर रहे सभी सोशलिस्टों ने अपना एक पृथक मंच बनाया - कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और बाद में आसन्न आज़ादी के समय तय किया कि हम विपक्ष में रहेंगें वरना भारत में लोकतंत्र कैसे चलेगा। सत्ता या पद लेने के किसी भी प्रस्ताव पर ये नेता सहमत न हुये , ये प्रस्ताव भी छोटे न थे। दूसरी पीढ़ी के सभी चमकदार प्रतिभाशाली नेता इस ओर हुये और समाजवादी विचार से प्रेरित नेहरू कांग्रेस में परंपरावादियों के सामने कमजोर पड़ गये।
आज़ादी के बाद गिने चुने बचे रहे जो विपक्ष की अलख जगाये रहे बाक़ी सब धीरे धीरे नेहरू के आकर्षण में सरकार में या कांग्रेस में या किसी अन्य काम में । जेपी भूदान आंदोलन में लग गये। १९४७ से १९६७ तक लोहिया ने उतनी ही कष्टदायक जेलें काटी जैसी कि अंग्रेज़ी राज में लेकिन संख्या में ज़्यादा ही। आज़ादी के बाद की २० साल की कठिन साधनहीन फक्कड़ राजनीतिक यात्रा के बाद उनकी राजनीतिक साधें आँशिक रूप से पूरी होना शुरु ही हुई थीं अलग अलग राज्यों में कि साधारण अस्पताल में ही अपनी प्रोस्टेटग्रंथि का ऑपरेशन कराने की ज़िद के कारण लोहिया सर्जरी के बाद हुई जटिलता से बचाये नहीं जा सके । वे अपनी उम्र के ६ दशक भी पूरे नहीं कर पाये।
इस चित्र का महत्व यह है कि आज़ादी के बाद प्रोफ़ेसर रमा मित्रा डा० लोहिया की अंतरंग मित्र व साथी रहीं। उनका खाना रहना कपड़ा लत्ता दवाई और कभी कभी यात्राओं के टिकिट का इंतज़ाम भी वही करती रही। दोनों ही अविवाहित रहे । अपने संघर्षमय जीवन में यात्राओं में समय निकाल कर डा० लोहिया तमाम गूढ़ विषयों पर रमामित्रा को पत्र लिखते रहते जिसका पहला प्रेमपूर्ण संबोधन ही सब संबंधों का बयान कर देता है। वह सब किताब रूप में कभी प्रकाशित हुआ था पर अराजक व ग़ैरज़िम्मेदार समाजवादियों की महिमा ही क्या यदि वह पुस्तक की एक भी प्रति आजतक मुझे कोई दे सकता जबकि उनके स्टोर में वे पुस्तकें दीमकों का ही आहार बनती हैं।
प्रो० रमामित्रा दिल्ली विवि के विख्यात महाविद्यालय मिरांडा हाउस में इतिहास पढ़ाती थीं। मैं दिल्ली विवि के समाजवादी युवजनों में तब सबसे कम उम्र का था इसलिये भी रमामित्रा मुझ पर विशेष लाड़ रखती थी। तब १९६९-७० में स्नेह से वे मुझे अपने कॉलेज परिसर स्थित आवास में कॉफी बना कर पिलातीं और संकोचवश मैं कह ही नहीं पाता था कि कड़वी कॉफी मुझे अच्छी नहीं लगती है , चुपचाप पीकर नमस्ते कर चला आता था पर उन दिनों मिरांडा हाउस परिसर में प्रवेश भी युवा लड़कों में रश्क का विषय हो ज़ाया करता था। रमा मित्रा जी के विशेष स्नेह का एक और कारण था , दिल्ली विवि के नॉर्थ कैम्पस की सारी बाहरी दीवारें मैं और राजकुमार जैन रात में डा० लोहिया की उक्तियों से बडे बड़े अक्षरों से भर देते थें । मिरांडा हाउस के बाहर विशेष तौर पर वे उक्तियॉं जो नर नारी समानता विषयक विचारोत्तेजक होती थीं जैसे “ भारत की आदर्श नारी सीता सावित्री नहीं द्रोपदी है “ , “ बलात्कार और वायदाखिलाफी को छोड़कर मर्द औरत में हर रिश्ता जायज़ है” , “ ज़ालिम वहीं होते हैं जहॉं दब्बू होते हैं “ और “ जिंदाकौमें पॉंच साल तक इंतज़ार नहीं किया करती “ आदि आदि । बस फिर क्या अगली सुबह कैम्पस में वे ही चर्चा का विषय हुआ करती थीं । मिरांडा की प्रिंसिपल साहिबा रमाजी से शिकायत करतीं ‘ तुम्हारा लड़का लोग कॉलेज की दीवारों को ख़राब कर दिया ‘। रमाजी कहती ‘ मैं आज बुला कर डंटूंगा’ और जब मिलतीं तो शिकायत सुनाती और पूछतीं ‘ कुछ खायेगा’ ।



और भी उदाहरण होंगें पर मेरी नज़र में लोहिया रमामित्रा शायद उस पीढी में पहले अनोखे और एकदम पारदर्शी रिश्ते में रहे जिसे आजकल लिवइन कहा जाता है। आज की पीढ़ी ठीक अस्सी नब्बे बरस पहले इस रिश्ते की क्रांतिकारिता या नईदृष्टि को समझ नहीं पायेंगें । उन्हें जो कुछ आज हासिल है उसके पीछे पुरानी पीढ़ियों ने क्या क्या दिया है और किन कंटकाकीर्ण रास्तों से !


Rama Shankar Singh