लोहिया : एक आख्यान

लोहिया : एक आख्यान
(Distinguished People talking about Lohia)
राजनारायण जी लिखते हैं-29- शरद ऋतु की रात थी। बनारस में मणिकर्णिका घाट के सामने दूर गंगा में दशाश्वमेध घाट से चलकर बजड़ा रुक गया। रात को 11 बजे से 3 बजे तक बजड़े की छत पर खुली चांदनी में दरी पर बिछी चादर पर दो-चार मसनद थे।


तारों का वर्णन था। सप्तऋषि मंडल कहाँ है, शुक्र कहाँ है, कुम्भ स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, विषयों की चर्चा थी। देश-विदेश की राजनीति, धर्म, समाजशास्त्र और दार्शनिक मुद्दों पर गंभीर विचार-विनिमय था किंतु लोहिया की दृष्टि मणिकर्णिका घाट पर गड़ी रहती थी। बीच-बीच में गांधी, राम, कृष्ण की चर्चा विचारों को उलझाये रहती थी। सन 52 के सार्वजनिक निर्वाचन में राम के प्रभाव-क्षेत्र में समाजवादी दल, कृष्ण के प्रभाव क्षेत्र में धर्म-सम्प्रदाय प्रधान पार्टियां, शंकर के प्रभाव-क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद आयी, ऐसा क्यों? प्रश्न का उत्तर ढूंढा ही जा रहा था कि बीच ही में डॉ. लोहिया बोल उठे- 'देखो, देखो, चिता पर घी छोड़ा जा रहा है। मालूम होता है, यह धनी घर का मुर्दा है। पहले जी चिता थी, उसमें ऊंची लहर नहीं उठी थी, इतनी देर तक लाश जली भी नहीं थी, बेचारा किसी गरीब घर का था। अधजले शरीर को ही नदी में फेंक दिया गया। तुम्हारे घर का मुर्दा कहाँ जलाया जाता है राजनारायण?'
'डॉ. साहब ! हमारे यहां के लोग तो हरिश्चन्द्र घाट पर जलाए जाते हैं। काशीराज के पारिवारिक लोग। सामने मंच बना है, उसी बगल में मालवीय जी की भी चिता लगी थी डॉ. साहब।'
'क्या तुम लोगों ने मालवीय जी को जलते देखा था?'
'हां, मैंने काशी विश्वविद्यालय से मालवीय जी के शव को ले चलने वाली टिकटी के बांस से कंधा हटाया ही नहीं। सड़कों पर बहुत भीड़ थी। फूल और माला का बोझ बढ़ता जाता था, उसे उतार-उतारकर हल्का किया जाता था। चंदन की लकड़ी पर मालवीय जी का शव रखा गया था। कनस्तर का कनस्तर घी डाला गया था। लोहबान, धूप और अन्य सुगंधित वस्तुएं डाली गयी थीं। मालवीय जी के शव को जलाने में बहुत देर न लगी'
'भारत ऐसे गरीब देश में लाश जलाया जाना भी एक समस्या बन जाता है। गरीब घर के मुर्दे अच्छी तरह से जलते भी नहीं। बेचारों के पास मुर्दों को जलाने के लिए लकड़ी भी नहीं । घी और चंदन की बात कहां!'
'आज हमारा देश इतना गरीब हो गया है, दोनों में धन और विचार से अकिंचन हैं, न तो समृद्धि बढ़ रही है और न विचारों की सड़ान दूर हो रही है। देश कैसे बनेगा? प्रधानमंत्री पर 30 हजार रुपये रोज खर्च हों, लोग तीन आना-चार आना प्रति व्यक्ति पर गुजर करें। इस स्थिति को फौरन बदलना है। कैसे बदलें? मन-मस्तिष्क की दरिद्रता और धन-दौलत की दरिद्रता जब तक दोनों दूर नहीं होंगे तब तक पिछड़े रहोगे। क्या तुम्हारी पार्टी यह काम करेगी? करेगी कहते हो। कहाँ हैं तुम्हारे लोग? कितने लोग हैं, जो अपने को मिटाकर दूसरों के हित की रक्षा करें ? क्यों नहीं तुम्हारे लोग इस बात का आंदोलन करते कि गरीबों के मुर्दों को बिजली से जलाये जाने का हर जगह सरकारी स्तर पर प्रबंध हो, जिससे गरीब लोग आसानी से बिना किसी चिंता के पूरी तरह जलाए जा सकें और नदियों का पानी भी स्वच्छ रहे। हाँ, ठीक है, क्या ठीक है? तुम इसका आंदोलन करोगे। याद रखो, मेरा शव वैज्ञानिक ढंग से बिजली से जलाया जाए। मैं चाहता हूँ कि मेरे मरने के बाद भी मेरे शव से गरीबों को प्रेरणा मिले। और धनी और गरीब के शव को जलाने का वह फर्क मीट जाए कि एक घी और चंदन से जले और दूसरे का शव अधजला ही पानी में बहा दिया जाए। मैं मरकर भी अमीर और गरीब का फर्क मिटाऊं इसलिए चाहूंगा कि तुम लोग साधारण आदमी की तरह मेरी लाश जलाना जिससे गरीबों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की भावना जागे और विज्ञान की नवीन मान्यताओं को अपनाकर पुरानी रूढ़ियों और कुसंस्कारो के बंधन से समाज मुक्त होकर समता और समृद्धि की ओर बढ़े। इस प्रकार बिजली से शव जलाए जाने पर ब्राह्मणवाद और जातिवाद के मिटने की प्रक्रिया शुरू होगी और कर्मकांड के व्यामोह से हिन्दू समाज मुक्त होगा।'
'तीन बज रहे हैं डॉ. साहब । ठंडक भी बढ़ रही है। अब यहां से चलिए, निवासस्थान पर आराम कीजिए।' मैंने कहा।
'ठीक कहते हो।' कहकर सदरी उठाए, कंधे पर रखे और चल दिए। पीछे हम लोग भी चल दिए।
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