खौफ की दुनिया में जीना

खौफ की दुनिया में जीना


मुझे कभी भी भार रहित नहीं रहने दिया
या यों कहें कि कभी भी हल्का नहीं रहता हूँ



चलता हूँ तो पगथलियों में उनकी भूख के काँटे चुभते रहते हैं,वह भूख जो मैंने नहीं भोगी,मुझे भरपेट खाना मिलता है,मन हो तो ज्यादा भी मिलता है,फिर भी पता नहीं कि भूख मुझे तो परेशान नहीं करती,लेकिन क्यों ,हवा में आँधी-सी,उड़ कर काँटे बिखेर देती है,एक आदमी,भरापेट हो कर कैसे उनसे बचे,समझ नहीं पाया


कोई मिलता है तो वह मुझे उस ख़ूँख़ार,अत्याचारी और तानाशाह राजा का वज़ीर लगता है,भले ही मेरा दोस्त क्यों न हो,कभी-कभी तो लगता है कि मैं भी उसके जैसा तब्दील हो जाऊँगा,बच नहीं पाऊँगा,कैसे-कैसे,बचूँ,ताकि इस कायर,मूर्ख और पराजित दुनिया में रह पाऊँ


एक बच्चा मिला,जिसने थिगलियों से भरा कुछ पहन रखा था,कम से कम वह परिधान तो नहीं था,अचानक मुझे देखने लगा,जैसे मेरी हत्या कर देगा,मैं सोच रहा था कि,यह मेरी हत्या कैसे कर सकता है,अगर आक्रमण किया तो मैं कैसे बचूँगा,कि वह बग़ल वाली गली में ओझल हो गया,तब मुझे साँस आई,मैं समझ गया कि यह मेरा नहीं,हमलोगों जैसे लोगों का डर है,जो अब अपने पापों के साथ मन और मस्तिष्क पर बोझ बन गया है,बार-बार बेताल की तरह सवार होते रहता है और मैं बोझ से दबने लगता हूँ


यहाँ तक कि औरतें भी मुझे भार-सी लगती गई,दबता रहा,पिसता रहा,उनके बोझ से ; सामना करने में असमर्थ पुरुष-सा शिखंडी,जबकि मैंने स्त्रियों के विरुद्ध होती दुरभिसंधियों से अपने को अलग रखा था,मैंने औरतों पर कई कविताएँ लिख डाली थी,लेकिन फिर भी उनके दुखों की दहलीज़ नहीं लाँघ पाया था ; हालत यह हो गई कि कल जब कुछ रेज़ा,अपने सर पर ईंटें ढो कर मेरी ही छत पर ले जा रही थी कि मैं बदहवास सा भीतर आया,पत्नी से कोई ऊलजुलूल बहाना बनाया


अब इतना बोझ और दवाब ले कर दिन कैसे गुज़रे
नींद कैसे आए,रात कैसे गुज़रे
इसीलिए यह लिख दिया,कृपया,इसे कविता न समझें ॥


प्रमोद बेड़िया