अतीत के पन्नों से

पत्रकार के लिए कोई हीरो नहीं होता है| वह स्वयं किसी से कम भी नहीं होता| वह नायक सर्जाता है , खलनायक को भी| वह उस नास्तिक की भांति है जिसके आराध्य इष्टदेव भी हुआ करते हैं| अतः मेरे हीरो हैं जॉन कैनेडी, अमरीका के शहीद राष्ट्रपति| मात्र इस लिए नहीं कि उनका और मेरा जन्मदिन एक ही दिन पड़ता है, (आज, 29 मई 2020) | मगर इस कारण से विशेष हैं कि साम्राज्यवादी, पूंजीवादी, शोषक अमरीका के वे एक मात्र राष्ट्रपति थे जिनकी अर्थनीति उपनिवेशों के लिए विकासोन्मुखी और उदार रहीं| सोवियत कम्युनिस्ट साम्राज्य उस युग में अफ्रीका और एशिया को अपने पंजे की पकड़ में क्रमशः ला रहा था| अमरीकी तटीय प्रदेश फ्लोरिडा कम्युनिस्ट क्यूबा द्वीप से केवल चार सौ मील दूर है| सोवियत रूस अपने आणविक शस्त्रों को राजधानी हवाना भेज रहा था| कैनेडी ने मना किया| तनाव बढ़ा| तीसरा विश्व युद्ध (16-28 अक्टूबर 1962) तय था| भला हो निकिता ख्रुश्चेव का, वे पीछे हट गए| दुनिया बच गयी| तब बिना अहंकार बोध के पैंतालिस-वर्षीय कैनेडी ने कहा: “हम वार्ता करने से डरेंगे नहीं| मगर डरकर वार्ता नहीं करेंगे|” कुछ ही माह पूर्व क्यूबा पर जबरन सैनिक हमला (बे ऑफ़ पिग्स) नाकामयाब रहा था तो कैनेडी फफक कर रोये थे| बोले : “अगर मेरे परामर्शदाताओं की यह आक्रामक योजना सफल होती तो माजरा कुछ और ही होता? आज मैं एकदम एकाकी हूँ| क्योंकि अंतिम दायित्व राष्ट्रपति का होता है|” तब उनकी उक्ति मशहूर थी : “सफलता के हजारों बाप होते हैं| विफलता यतीम होती है|”


कैनेडी प्रगाढ़ भारतमित्र थे| जब चीन की लाल सेना बोमडिला जीतकर, गुवाहाटी की ओर कूच कर रही थी, तो जवाहरलाल नेहरू ने एक ही दिन (19 नवम्बर 1962) दो पत्र कैनेडी को लिखे थे| वे दस हजार अमरीकी वायु सैनिक और बमवर्षक तथा जेट वायुयान तत्काल भेजें, ताकि चीन को रोका जा सके| कैनेडी की धमकी से मार्शल अयूब खान ने कश्मीर पर तब हमला नहीं किया| खौफ खाकर माओ ज़ेडोंग ने अपनी लाल सेना लौटा ली| यदि अमरीका के अन्य राष्ट्रपतियों की भांति कैनेडी भी पाकिस्तान से यारी करने में लगे रहते तो ?


महाबली अमरीका की उदारता का एक नमूना और| कैनेडी ने सहनशीलता की परिभाषा में कहा था : “सहिष्णुता के मायने अपनी आस्थाओं से प्रतिबद्धताओं का अभाव नहीं है| विरोधी के विश्वासों को कुचलना निषिद्ध होना चाहिए|” जब भारत में मंडल आन्दोलन और अयोध्या संघर्ष का दौर था, कई भारतीय जन कैनेडी की उस चेतावनी की चर्चा करते थे कि : “जो लोग शांतिमय क्रांति को असंभव बना देते हैं, वे ही लोग हिंसक क्रांति को अपरिहार्य बना डालते हैं|”


कैनेडी के प्रति नारी का आकर्षण बड़ा सहज था| उनके जन्मदिन (29 मई) पर हॉलीवुड की हसीनतम अभिनेत्री( सेक्सी गुड़िया) मेरिलीन मुनरो ने “हेप्पी बर्थडे” गाया, तो कैनेडी खुद को रोक नहीं पाए| बोल पड़े: “मेरिलीन ! तुम्हारे प्यारे गायन के बाद राष्ट्रपति पद मेरे सामने कुछ भी नहीं रहा|”


मेरे जैसे श्रमजीवी के लिए 29 मई कई मायनों में एक विलक्षण दिवस है| इसी तारीख को 1953 में एक साधारण मालवाहक मेहनतकश विश्व के सबसे ऊँचे शिखर माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ गया था| शेरपा तेनजिंग नोर्गी ने चोटी पर चढ़कर अपनी भुजाएं एडमंड हिलेरी की ओर बढ़ाई और उसे ऊपर खींचा| मगर दुनिया में एक गलतबयानी फैली कि न्यूजीलैंड के हिलेरी ने एवरेस्ट जीता| सर्वहारा वर्ग के इतिहास में फिर एक बार पसीना पैसों से पराजित हो गया| मगर दलितजन ने आज ही के दिन 1947 में हजारों साल से चले आ रहे जातीय विषमता का खात्मा कर भारतीय संविधान में समरसता (धारा 14) के तहत पूर्ण मूलाधिकार हासिल कर लिया| चीन के उन छात्र प्रदर्शनकारियों को हर स्वतंत्रता-प्रेमी सलाम करता है जो आज, (29 मई 1989) बीजिंग के तियानमेन चौक पर स्वतंत्रता की देवी की प्रतिमा लगाने का संघर्ष करते कम्युनिस्ट पुलिस की गोलियों से भून डाले गये थे| सम्प्रति हांगकांग द्वीप का जनवादी आन्दोलन भी अधिनायक जिनपिंग (नामित आजीवन राष्ट्रपति) के दमन से त्रस्त हैं|


हमारे पत्रकारी मुहावरा कोश में आज ही जुड़ गया था कि “कैलिफोर्निया का सारा सोना मिल जाय फिर भी हम खबर दबायेंगे नहीं| जरूर वह छपेगी|” इसकी उत्पत्ति आज ही के दिन 1848 में हुई थी| तब कैलिफोर्निया की सट्टर खाड़ी में सोना मिला| जेम्स मार्शल, खनन विशेषज्ञ, ने खोजा था| और उस वर्ष के 29 मई के दिन कैलिफोर्निया के समस्त पत्र-पत्रिकाओं के कर्मचारी कार्यालय छोड़कर सोना बटोरने चल पड़े| अख़बारों ने घोषणा कर दी कि प्रकाशन ठप पड़ गया है| पाठकों ने बड़ी भर्त्सना की| तभी से उक्ति बनी कि यदि कैलिफोर्निया का सारा स्वर्ण भी मिल जाये, अख़बार छपेंगे ही| हमारी अभिव्यक्ति की आजादी अक्षुण्ण है|


भारत से सम्बंधित बड़ी सियासी घटना थी कि आज ही के दिन 1991 में जब सोनिया गांधी ने शहीद राजीव गाँधी के स्थान पर कांग्रेस अध्यक्ष पद के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था| नतीजन पीवी नरसिम्हा राव नामित हुए| पार्टी को सरकार बनाने का आमंत्रण राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमण ने दिया| पांच वर्ष नरसिम्हा राव के कारण नेहरु वंश के आधिपत्य से भारत मुक्त रहा|


किन्तु मेरे आकलन में 29 मई 1658 आधुनिक भारत के लिए सबसे बड़ा त्रासदीपूर्ण बना| दुर्भाग्य का दिन रहा| इसी दिन पूर्वी आगरा के निकट सामुगढ़ की रणभूमि में औरंगजेब आलमगीर ने अपने सबसे बड़े भाई युवराज दारा शिकोह को परास्त किया| दिल्ली ले जाकर भिखारी के कपडे पहनाकर, जंजीर से बाँधकर हाथी से रौंदवाया, सर काटकर पिता शाहजहाँ को आगरा किला कारागार में नाश्ते की तश्तरी में पेश कराया| यदि दारा शिकोह सामुगढ़ में जीत जाता तो भारत का इतिहास बदल जाता| न इस्लामी कट्टरपन पनपता, ढाई सदियों बाद न मोहम्मद अली जिन्ना का मकसद फलीभूत होता| दारा शिकोह द्वारा सूफी तथा वेदांत का समन्वय भारत की धर्मनीति होती| उनके ज्योतिषी भवानी भट्ट सांप्रदायिक सामंजस्य सशक्त करते| काशी के प्रतिष्ठित त्रिपाठी परिवार अपने शिष्य दारा के आदर्श सेक्युलर बादशाह बनने में सहायक होते| इसी त्रिपाठी परिवार के थे पण्डित कमलापति त्रिपाठी, कांग्रेस नेता|


अब उस 29 मई का जिक्र कर दूं जो मेरे निजी जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण था| बड़ौदा सेन्ट्रल जेल में हम सात लोग दस बाई दस फीट के तनहा कोठरी में कैद रखे गए थे| महाराजा सयाजीराव द्वारा 1840 में निर्मित इस काल कोठरी में फांसी के सजायाफ्ता कैदी ही रखे जाते थे| मैंने इन्हीं कोठरी नंबर 38 मेंने अपना जन्मदिन (29 मई 1976) “मनाया” था| हम पर आरोप था कि हमने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ साजिशन भारत सरकार पर ऐलाने-जंग किया था| बगावत का अंजाम मौत होता है| तब इमरजेंसी थी| मां बेटे की कुर्सी हेतु मीसा लागू था| इसको लोग बताते थे “मेंटिनेंस ऑफ़ इंदिरा एंड संजय एक्ट” | आज के लॉकडाउन में घर में बंद रहने से तो तब की बड़ौदा जेल की बंदी भली थी| तब नए भारत का सपना हमने संजोया था| इंदिरा के लिए नारा हम लगाते थे “दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे|” तय था कि नयी सुबह आएगी| राय बरेली के वोटरों ने इस भोर को ला दिया, इंदिरा गाँधी को हराकर|


अंत में खुद की एक बात| बड़े भाई बताते थे कि नई दिल्ली के कनाट प्लेस के निकट जैन मन्दिर वाली कॉलोनी में हमारा परिवार रहता था| पिताजी( स्व. के. रामा राव) हिंदुस्तान टाइम्स के न्यूज़ एडिटर थे| समीपस्थ लेडी हार्डिंग अस्पताल में मैं (29 मई को) जन्मा था| इत्तिफाक रहा कि मेरी पत्नी सुधा ने इसी कॉलेज से 1967 में MBBS किया| मुझे पिताजी “आनन्ददायका, भाग्यकारका” कहते थे, क्योंकि तभी लखनऊ में ‘नेशनल हेरल्ड’ स्थापित हुआ था| पिताजी को आचार्य नरेंद्र देव, रफ़ी अहमद किदवई, मोहनलाल सक्सेना ने संपादक नियुक्त किया था| माँ मुझ (भविष्य के कामगार) को पादुशाह बुलाती थी| जन्म स्थान के कारण, शायद|


K Vikram Rao
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