आधुनिक भारत मे वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था की  प्रसांगिकता

भारतीय विविधता वादी समाज  में जाति एक सच्चाई है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखे तो भारतीय समाज मे जाति एक बहुसंख्यक  पशुओं, मुर्गियों का वह  छोटा सा दड़बा, घर है जिसमें वह जन्म लेता है, विकसित होता है, यौनिक साहचार्य कर प्रजनन करता है और उसी दड़बे में  अंततः मर  भी जाता है।क्योंकि इससे निकलने का और कोई सामाजिक नैतिक और वैधानिक विकल्प हिन्दू समाज मे उपलब्ध नही है। मनुष्य की शिक्षा, गुण ,व्यवहार योग्यता और रोजगार से आपकी जीवन स्तर  सुधर सकती है लेकीन आपको आपकी जाति का गौरव या  दंश  ताउम्र पीछा नही छोड़ सकता है। "क्योकि जाति ऐसी चीज है की  ताउम्र जाती ही नही है"  ।            


आज की परिस्थिति में प्रत्येक श्रेष्ठ और सुसभ्य मनुष्य सम्मानिय होता  है | वैश्विक स्तर पर व्यक्ति की महानता उसके  शिक्षा ज्ञान  कौशल और योग्यता से होती है। हर सभ्य समाज में व्यक्ति अपने आचरण, वाणी और कर्म में  मानवीय समतावादी सिद्धांतों का पालन करने वाले, शिष्ट, स्नेही, अनैतिक कार्य न करनेवाले, सत्य की उन्नति और प्रचार करनेवाले, आतंरिक और बाह्य शुचिता इत्यादि गुणों को सदैव धारण करनेवाले श्रेष्ठ उच्च   एवं महान कहलाते हैं | इसके लिए  किसी भी  आधुनिक समाज और सभ्यता में किसी खास वर्ण और जाति की  जन्मजात  कृत्रिम टैग मोहर और पदवी की जरूरत नही होती है।लेकिन आधुनिक भारतीय समाज के  ब्राह्मण (हिन्दू) धर्म  मे  जन्मजात उच्च नीच रूपी  वर्णगत एवं जातिगत पदवी के कारण अबतक सामाजिक सम्मान प्राप्त होता रहा है।


भारतीय समाज मे "गण "की जगह "गोत्र " व्यवस्था- 
भारत की वैदिक  सभ्यता  के पूर्व सभ्यता जो मूलतः श्रमण संस्कृति पर आधारित  सभ्यता थी में" गण" व्यवस्था  थीं। प्रत्येक गण , समूह के लोगों का पशु,पक्षी और पेड़  पर आधारित तीन प्रकार के गणचिन्ह, वंश चिन्ह,कुलचिन्ह  होते थे। सम विषम के  आधार पर विपरीत गण वालो के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये जाते थे। ताकि सामरिक आर्थिक प्रशासनिक और उन्नत संतति के विकास में सहायक हो। परन्तु  सिन्धु सभ्यता के यूरेशियन लोगो और बाहरी तत्वों द्वारा विनाश के बाद  गण व्यवस्था की जगह  आर्यो द्वारा गोत्र व्यवस्था लागू किया गया  ।जो मूलतः उस समय के सप्त ऋषियों  भारद्वाज, कश्यप ,वशिष्ठ, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र  आदि  ऋषियों के नाम के आधार पर अव्यवहारिक "गोत्र" व्यवस्था थी। क्योंकि सम्पूर्ण संबुदीप , अखंड भारत को  सात व्यक्तियों  के वंशज साबित नही किया जा सकता है। इसी कारण  ध्यान में रखें की गोत्र प्रयोग करने की प्रथा सिर्फ कुछ ही शताब्दियों पुरानी है. आपको किसी भी प्राचीन साहित्य में ‘राम सूर्यवंशी’ और ‘कृष्ण यादव’ जैसे शब्द नहीं मिलेंगे. इसी कारण आर्यो के  सप्तऋषिमुल्क गोत्र को दक्षिण भारत मे द्रविड़,  अनार्य संस्कृति में  सार्वेभौमिक रूप से नही अपनाया गया ।आज के समय में भी  वहा एक बहुत बड़ी संख्या के लोगों ने अपने गाँव, पेशा और शहर के ऊपर अपना गोत्र रख लिया है. दक्षिण भारत के लोग  जो मूलतः द्रविड़ लोव है  अपने पिता के नाम के साथ अपने गाँव आदि का नाम प्रयोग करते हैं. । आज की तारीख में शायद ही ऐसे कोई गोत्र हो  जो  भारतीय प्राचीन सभ्यता की उत्पत्ति के समय से चले आ रहे हों.
प्राचीन  भारतीय सैंधव समाज गोत्र  ,वंश के प्रयोग को हमेशा ही हतोत्साहित किया करता था. उस समय लोगों की इज्ज़त  आदर पहचान सिर्फ उनके गुण, कर्म और स्वाभाव को देखकर की जाती थी न कि उनकी जन्म लेने की   कृत्रिम मानव मोहर या टैग के आधार पर। उस समय आज की तरह ही  वणिक(पणिक), कृषक, व्यवसायी, कास्तकार, लोहार,सोनार का काम करने वाले थे लेकिन काम और पेशा के आधार पर किसी  वर्ण ,जाति   नाम की कोई उपाधि नही होती थी।  नाही लोगों को किसी जाति सूचक शव्द की जरूरत थी और ना ही लोगों का दूर दराज़ की जगहों पर जाने में मनाही थी जैसा कि ब्राह्मण धर्म  के दुर्भाग्य के दिनों में हुआ करता था. इसीलिए किसी की जाति की पुष्टि करने के लिए किसी के पास कोई भी तरीका ही नहीं था . किसी आदमी की प्रतिभा , गुण ,चरित्र, स्वभाव  कार्य ही उसकी एकमात्र पहचान हुआ करती थी. हाँ ये भी सच है कि  बाद के काल मे इस व्यवस्था से जिनको  पैतृक  जन्मजात रूप से  आदर सम्मान प्राप्त होने लगा तो समाज मे सामाजिक विघटन प्रारम्भ हुआ। इस कारण कुछ स्वार्थी पुरोहितों, ब्राह्मणों , असामाजिक,  पाखंडी और सत्ता लोलुप  राजसत्ताओं के लोगों की वज़ह से समय के साथ साथ विकृतियाँ आती चली गयीं. और आज हम देखते हैं कि  सामाजिक, शिक्षा जगत, धर्म, उद्योग,राजनीति ,साहित्य, संस्कृति ,संगीत और बॉलीवुड भी जातिगत हो चुके हैं. और इसमें कोई भी शक की गुंजाईश नहीं है कि  राजसत्ता और ब्राह्मण, और पूंजीवादी स्वार्थी लोगों की वज़ह से ही दुष्टता से भरी इस जातिप्रथा को मजबूती मिली. इन सबके बावजूद जातिप्रथा की नींव और पुष्टि हमेशा से ही पूर्णरूप से गलत रही है.


 प्राचिन भारत मे वर्णेव्यवस्था की उत्पत्ति-


भारत मे सिंधुकालीन सभ्यता में श्रमण परंपरा थी ।श्रमण  शव्द शमन से बना है जिसका  अर्थ कष्टो दुखों का निवारण और शमन कारण होता है।अर्थात समाज के दुख पीड़ा कष्ट को श्रम सहयोग और आपसी सहायता के माध्यम से दूर निवारण करने की आंतरिक सामाजिक आर्थिक राजनैतिक पद्धति व्यवस्था थी। परन्तु बाद के समय मे यूरेशियन लोगो के आगमन के पश्चात इस श्रमण व्यवस्था को जानबूझकर खत्म कर  सामाजिक और श्रमविभाजन के तौर पर वर्णेव्यवस्था का विजारोपन किया गया। जिसका उद्देश्य उस काल समय मे शायद   श्रम और वर्ग विभाजन का सहारा लेकर भारतीय मूलनिवासीओ (दस्यु/दास) और आर्यो के बीच  अंतर करना रहा हो । जिस कारण  पूर्व ऋग्वैदिक काल में मात्र  आर्य और दास/दस्यु दो ही बिभाजन थे। परंतु उत्तर ऋग्वैदिक काल में समय की जरूरत एवं परिस्थितियों के अनुकूल श्रम विभाजन के दृष्टिकोण से विशेष रूप से  आर्यो को आंतरिक रूप से तीन वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण में विभाजित किया गया और अनार्य (दास/दस्यु )को चौथे वर्ण शूद्र  के रूप में रखा गया। लेकिन समय के प्रवाह से शुद्रो  दासों और  सेवको के वर्ग को भी  सछुत और अछूत में विभाजित किया गया । जिससे समाज की महत्वपूर्ण बहुसंख्यक वर्ग  पंचम वर्ण (वहिष्कृत) वर्ग के रूप में अछूतपन बहिष्कार का शिकार हो गए ।जिनके साथ सामाजिक आर्थिक धार्मिक रूप से अमानवीय व्यवहार किया जाता रहा। जिससे चांडाल ,मुसहर, मोची, धोबी, पासवान आदि अछूत  जातिया  आज भी शोषित अभिसप्त जीवन जीने को मजबूर है।  


प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के प्रणेता द्वारा "जन्मना जायते शुद्रा संस्कारात द्विज उच्यते" का सिद्धान्त दिया गया था । द्विज – अर्थात् जिसने दो बार जन्म लिया हो | हर व्यक्ति का दो जन्म होता है। बायोलॉजिकल बर्थ एंड कल्चरल   बर्थ। जैविक जन्म से तो सभी शूद्र समझे गए हैं |  लेकिन एक सुनियोजित साजिस और षड्यंत्र  के तहत ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों को द्विज कहा गया हैं क्योंकि विद्या संस्कार चरित्र स्वभाव निर्माण की अवसर  और सुविधा इन्हें प्रदत था जिसे  प्राप्ति के उपरांत  शिक्षा प्रशिक्षण योग्यता हासिल करके वे समाज के उत्पादन और कल्याण में सहयोग प्रदान करते थे।  जबकि बाद के वर्ण शुद्र और अतिशूद्र को शिक्षा संस्कार और चरित्र निर्माण  के अवसर सुविधा से वंचित किया गया था। तो कैसे यह संभव हो पाता कि शुद्र जैविक जन्म के उपरान्त  स्वयं को सांस्कृतिक जन्म  में परिवर्तित कर सकेगा । इस तरह से इनका दूसरा जन्म ‘ विद्या ,संस्कार से वंचित रह गया जो मात्र बायोलॉजिकल जन्म’ के रूप में समाज का सेवक दास मात्र बनकर रह गया। केवल माता-पिता से जन्म प्राप्त करनेवाले और  ज्ञान सदाचार परोपकार विद्याप्राप्ति में असफ़ल व्यक्ति इस दूसरे जन्म ‘ विद्या जन्म ,सांस्कृतिक जन्म ‘ से वंचित रह जाते हैं वे  सभी व्यक्ति या समूह शूद्र कहलाते थे |


सैद्धान्तिक रूप से कहा जाता है कि यह चार वर्ण वास्तव में व्यक्ति को नहीं बल्कि गुणों कार्यो के आधार पर श्रमविभाजन  को प्रदर्शित करते थे।  जैसा कि मालूम है कि प्रत्येक मनुष्य में प्राकृतिक रूप से ये चारों गुण (बुद्धि, बल, प्रबंधन, और श्रम) सदा रहते हैं. आसानी के लिए जैसे आज पढ़ाने वाले को अध्यापक, रक्षा करने वाले को सैनिक, व्यवसाय करने वाले को व्यवसायी आदि कहते हैं वैसे ही पहले उन्हें क्रमशः ब्रह्मण, क्षत्रिय या वैश्य कहा गया और इनसे अलग अन्य  सेवा श्रम के काम करने वालों को शूद्र कहा गया। जिसे बाद में  शुद्र के पर्याय  के रूप में  कास्तकार, शिल्पलकार, सेवक या दास   भी माना गया । 


आजकल प्रचलित   जन्मजात कुलनाम पदवी ( surname) लगाने के रिवाज से इन वर्णों का कोई लेना-देना नहीं है | हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थ रामायण, महाभारत या अन्य ग्रंथों में भी इस तरह से प्रथम नाम- मध्य नाम- कुलनाम लगाने का कोई चलन नहीं पाया जाता है और न ही वर्ण शब्द किसी प्रकार की वंशावली  प्रजाति या कुल को दर्शाता है|
इस दृष्टिकोण से  यदि ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य पुत्र भी  शिक्षा के अवसर साधन सहयोग पाकर या विना शैक्षिक अवसर सहयोग के ज्ञान और विद्या प्राप्त करने में प्रतिभा अभाव ,आलस्य प्रमाद ,अनिच्छा या किसी भी कारणवश असफल रहा हो तो वैसे व्यक्ति  शूद्र  के रूप में मानने योग्य या माने जाते रहे है । दूसरी ओर शूद्र भी  सामाजिक आर्थिक भावनात्मक सहयोग और शिक्षा के अवसर प्राप्त कर अपने प्रतिभा ,मनोवल , निश्चय से ज्ञान, विद्या ,प्रशिक्षण और संस्कार प्राप्त करके ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बन सकता था | इस में माता- पिता द्वारा प्राप्त  जैविक जन्म का कोई विशेष  संबंध नहीं था |  
 भारतीय समाज में जातिप्रथा की उत्पत्ति-
 सामाजिक आर्थिक धार्मिक राजनैतिक व्यवस्था के रूप में वर्णेव्यवस्था के स्थायित्व और मजबूती के लिए यह वर्ण गतिशीलता अव्यवहारिक  थी। क्योंकि फिर बार बार किसी का  योग्यता गुण स्वभाव अनुरूप पेशा व्यवसाय कार्ये बदलने से उसके वर्ण भी बदलना पड़ता जिससे पुरोहितों  राजसत्ता और धनपतियों का  अधिपत्य  प्रभुता महानता और अधिकार खतरे में पड़ सकती थी। इसीलिए इस प्रकार की किसी भी भविष्य में उत्पन्न  संभावना को ख़त्म करने हेतु शुद्रो, दासों, सेवको गुलामो  काश्तकारो की औपचारिक  शिक्षा  ,प्रशिक्षण से वंचित करने का प्रावधान मनुस्मृति रूपी  ब्रह्माणी धार्मिक  ग्रंथों में की गई।
 इस ख़तरे की संभावना का स्थायी समाधान के रूप में रणनीति के तहत वर्णेव्यवस्था के अंदर कार्ये व्यवसाय पेशे के गतिशीलता को प्रतिबंधित करने हेतु  जातिव्यवस्था का  स्वर्ण जड़ित  विना खिड़की और दरवाजे की कालकोठरी का अनोखा आविष्कार किया गया।  जिसमें जन्मना जाति की  टैग  और कर्मणा  वर्ण की टैग प्रदान करने की दोहरी टैग प्रदान करने की षड्यंकारी व्यवस्था किया गया। अर्थात इंसान को  जनमते ही एक जातीवाद की  अमिट स्थायी  मुहर (टैग)और भविष्य में   पेशा बदलने की स्थिति या संभावना  में वर्ण का दोहरी  टैग की  व्यवस्था की गई। जिसमे ब्राह्मणों क्षत्रियो वैश्यों के लिए सकरात्मक ,सम्माननीय टैग (शुक्ल ,मिश्रा ,दुबे  ,ठाकुर, सिंह राजपूत ,धनपतराय , किरोड़ीमल,तिलोकचंद ) तथा शुद्रों  दासों अछुतो के लिए  नकारात्मक , अपमानजनक टैग( चमार, धोबी,नाइ, हजाम, हलालखोर, मुसहर, दुसाध, पासी, यादव) का संबोधन दिया गया। इस व्यवस्था के कारण यदि कोई  सोनू मोची (चमार जाति) नामक व्यक्ति शिक्षा योग्यता प्राप्त कर संस्कृतचार्य प्रोफेसर डॉक्टर इंजीनियर भी यदि बन जाय तो उसे चमार (अपमान जनक) पहले कहा जाता है प्रोफेसर या डॉक्टर बाद में कहलाता है। वैसे सुशिक्षित गुणवान  व्यवहारिक व्यक्ति होने के कारण मंदिरों में या समाज मे पुरोहित पंडित के कार्य  मे नियोजित किया जा सकता है, लेकिन सकारात्मक  सामाजिक वातावरण और सामाजिक स्वीकरोक्ति के अभाव में उसे ब्राह्मण पंडित  के योग्य कदापी नही माना जाएगा। लेकिन दूसरी तरफ यदि रविकांत दुबे (ब्राह्मण वर्ण /जाती) नामक व्यक्ति  शिक्षा योग्यता अवसर के अभाव में चौकीदार ,कुली, चपरासी ,ऑटोचालक का कार्य करता है तो वह पहले ब्राह्मण पंडित जी(सम्मानजनक) कहलाता है बाद में कोई चोकीदार  ऑटोचालक या चपरासी कहलाता है। केवल ब्राह्मण  और सामाजिक स्वीकार्येता होने के कारण ऐसे लोग अयोग्य ,गुणहीन ,अशिक्षित होते हुए भी हिन्दू   समाज में पुरोहित पंडित पुजारी की  दोहरी  भूमिका  के रूप में ऊपयोग किए जाते है। यह आज की हिन्दू समाज की कटु सच्चाई आ और यथार्थ भी है। यही दोगली  षड्यंत्रकारी ब्राह्मण नीति के कारण भारतीय समाज में  शिक्षा योग्यता  गुण  चरित्र की पूजा सम्मान न होकर  वर्ण और जाति की  इज्जत ज्यादा होती है। 


 वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के लाभ एवं महत्व-    


                  जातिप्रथा अपने  सकारात्मक स्वरूप में निम्नलिखित  भूमिका का  निर्वाह करने में सफल रही।                    
1) व्यक्ति के सामाजिक स्थिति का निर्धारण
2)मानसिक सुरक्षा 3) पैतृक वयवसाय का निर्धारण 4) वैवाहिक समूह का निर्धारण 5)सामाजिक सुरक्षा 6) धार्मिक भावना की सुरक्षा 7)रक्त की सुद्धता बनाए रखना 8)सामाजिक स्थिति का निर्धारण 
9) संस्कृति की रक्षा 10) जातीय एकता को प्रोत्साहन 11) अपातकाल में सहयोग और सुरक्षा 12)   समाज के विकास और रक्षा में सहयोगी 
13)राजनीतिक स्थिरता कायम करना 14) स्थायी श्रम  विभाजन 15) धार्मिक सहिष्णुता और उदारता  16) अन्य समूहों धर्मो को आत्मसात करने की  क्षमता 17)जिम्मेदारी निर्वाह की सार्थक प्रेरणा


 वर्णेव्यवस्था और जातिव्यवस्था के दोष और खामियां-
1) विभेदकारी व्यवस्था-
आधुनिक युग मे महानता और श्रेष्ठता  शब्द किसी  जाति बंश गोत्र से  सरोकार नहीं रखता |  भारत मे प्राचीन गण व्यवस्था के बाद अव्यवहारिक  गोत्र का वर्गीकरण नजदीकी संबंधों में विवाह और रक्त सम्मिश्रण से बचने के लिए  पुरोहितों धर्मेव्यवसायी ,पाखंडियो  ,सम्प्रभु वर्ग द्वारा  राजसत्ता ,राजा के आदेश से किया गया था |
2) ब्राह्मणों का  विशेषाधिकार- इसमे ब्राह्मणों के लिए  विशेष अधिकार प्राप्त है। ताकी  ब्राह्मणों के वर्णगत  और वंशपरम्परा से प्राप्त विषेशाधिकार  सुरक्षित रह सके।आज सभी जातियों में प्रचलित कुलनामों  जाति अभिमान का सम्बंध  शायद ही किसी के योग्यता गुण  आचरण शिक्षा और व्यवहार  से सम्बन्ध भी हो |
3) सैद्धांतिक और अव्यवहारिक व्यवस्था- 
सैद्धान्तिक रूप से  माना  जाता है कि  प्राचीन ऋग्वैदिक समय की यह वर्ण व्यवस्था जन्म- आधारित नहीं होकर  गुण कर्म और स्वभाव के अनुरूप था।  लेकिन व्यवहारिक रूप से प्रारंभ से ही वर्णेव्यवस्था का उद्देश्य श्रम विभाजन न  होकर मानव संसाधन और श्रमिकों व्यक्तियो का विषमतामूलक भेदभावपूर्ण राजनीतिक विभाजन रहा है।
4)  उच्च वर्णो का सामाजिक आर्थीक  धार्मिक और राजनीतिक प्रभुत्व -   इसी कारण वर्णेव्यवस्था को सामाजिक आर्थीक धार्मिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से परखने की सख्त आवश्यकता है। 
किसी भी समाज के संचालन में ज्ञान धन और राजनीति (पुरोहित, राजा और वणिक) की प्रमुख भूमिका  होती है। और इसी शास्त्र शस्त्र और धन की अधिपत्य ,अधिकार की  व्यवस्था को धार्मिक रूप वर्णेव्यवस्था के माध्यम से दिया गया। 
5)श्रम विभाजन की जगह मानव समाज का विभाजन-   व्यवहारिक रूप से  इस व्यवस्था की खामियां यह रही कि "यह व्यवस्था श्रम का विभाजन नही करके श्रमिकों ,मानव समाज का   विभाजन  जन्म से ही कर दिया।  तथा बाद में  हर मनुष्य को जन्मजात  रूप से एक सीढ़ीनुमा कतार (HIARARCHY), ऊँचनीच, छोटा बड़ा अधिकारी अनाधिकारी  के भेदभाव से सम्बोधित किया जाने लगा"।
6) शुद्रो काश्तकारों की निम्न प्रस्थिति-          रामायण के एक प्रसंग के अनुसार सम्बुक ऋषि को  शुद्र वर्ण का होने के कारण  राजा राम द्वारा  ज्ञानार्जन और तपस्या का अधिकारी ना मानते हुए उसकी  हत्या  कर दी जाती है। दूसरे सन्दर्भ में एकलव्य को धनुविधा का अधिकारी  नहीं मानते हुए द्रोणाचार्य द्वारा अंगूठा कटवा दिया जाता है ताकी भविष्य में अर्जुन जैसा कोई भी धनुधर पैदा  न हो सके। 


7) योग्यता की जगह  पैतृक जन्म का महत्व- निस्संदेह, परिवार  की शिक्षा, आर्थिक स्थिति ,सामाजिक स्तर तथा उसकी पृष्टभूमि का किसी व्यक्ति को संस्कारवान बनाने में महत्वपूर्ण स्थान है । परंतु इससे कोई  मरहूम अज्ञात कुल का मनुष्य महान श्रेष्ठ  नहीं हो सकता यह नहीं  माना  जा  सकता है | समाज के  सभी  व्यक्ति को शिक्षा  संस्कार के अवसर साधन सहयोग प्राप्त हो तो वह प्रकृति गत प्रतिभा का विकास सहज ढंग से कर सकता है।
8) वर्ण  एवं व्यवसायीक गतिशीलता का अभाव-       हमारे हिन्दू समाज मे विडम्बना रही है कि वर्णेव्यवस्था की   कटीली जंजीर को मजबूती  प्रदान करने के लिए बाहर और भीतर से तालाबंदी कर दिया गया था। इसी कारण डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर  कहते है "वर्णेव्यवस्था और जातिव्यवस्था बिना दरबाजे और खिड़की  का राजमहल भवन  है , जो जिस  माले पर जन्म लिया है वह उसी तल्ले पर सिसकते हुए घुटते हुये जीवन जियेगा और अंततः उसी कालकोठरी में मर भी जाएगा क्योंकि बाहर निकलने का और अंदर जाने का कोई भी दरवाजा नही है"।  कोई  जंजीर तोड़कर  साहस के साथ किसी वर्ण  या  जाति विशेष से  बाहर नही निकले इसके लिए  ब्राह्मणों  द्वारा राजसत्ता के सहयोग से अन्य वर्णो के लोगो खासकर शुद्रो की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाया गया था । 
9) मानवीय नैसर्गिक योग्यता और प्रतिभा का हनन - वर्णेव्यवस्था की सुसंचालन के लिए जरूरी था की अपनी रूचि ,इच्छा, योग्यता, क्षमता और विवेक के अनुसार सबको  समान शिक्षा का अवसर प्रदान किया जाता तब उनलोगों को अपनी पेशा चुनने का अवसर प्रदान किया जाता । इसी कारण भारत मे वर्णेव्यवस्था के पतन का एक प्रमुख कारण है मिथ्या जन्मना वर्णेव्यवस्था। 
10) राष्ट्रीय एकता और विकास में बाधक-                         जाति व्यवस्था जिसे हम आज मूर्खता पूर्वक अपनाये बैठे हैं और जिसके चलते हमने अपने समाज के एक बड़े तबके लगभग 80 से 85% हिस्से को सभ्य समाज रूपी शरीर से अलग कर रखा है । उन्हें शूद्र या अछूत और वहिष्कृत का दर्जा देकर । महज इसलिए कि कही हमारा जन्मजात जातिगत अभिमान  और सामाजिक सम्मान न खतरे में पड़ जाय।
11) योग्यता का आधार  जन्मना जाति -     सभी समाज मे योग्यता का  आधार गुण कर्म होता है।योग्य    कुशल  उच्च और महान शब्द श्रेष्टता  और  निपुणता का द्योतक है |  किसी की श्रेष्ठता ,महानता को जांचने में पारिवारिक पृष्ठभूमि वंश, जाति, वर्ण का कोई  खास मापदंड हो ही नहीं सकता  है। क्योंकि किसी चिकित्सक इंजीनियर ,वकील , प्रोफेसर का बेटा केवल इसी लिए चिकित्सक ,इंजीनियर ,वकील या प्रोफेसर नहीं कहलाया जा सकता क्योंकि उसका पिता चिकित्सक ,इंजीनियर ,वकील या प्रोफेसर है। इसी तरह किसी ब्राह्मण ,वैश्य या क्षत्रिय का बेटा  केवल इसलिए ब्राह्मण नही कहा जा सकता है कि उसके पिता ब्राह्मण या क्षत्रिय है। वहीँ दूसरी ओर कोई  कुली, लोहार, धोबी, बढई ,सफ़ाई कामगार, रिक्शा वाले, कृषक, या अन्य गरीब का  बच्चा भी यदि  अवसर ,साधन,सहयोग प्राप्त कर  उच्च शिक्षित हो जाए तो वह आईएएस अधिकारी, वकील, प्रोफेसर, संस्कृताचार्य, चिकित्सक हो सकता है.।उसे केवल इसलिए ऐसा बनने से रोका नही जा सकता कि वे किसी शुद्र पिछड़े या  अछूत   का संतान है।  जो सामाजिक दृष्टि से सामाजिक हित परोपकार का कार्ये करता है। ठीक इसी तरह किसी का यह कहना कि शूद्र , क्षत्रिय ब्राह्मण नहीं बन सकता  या व्यापार व्यवसाय पेशा नही बदल सकता है सर्वथा अनुचित और  गैर तार्किक है।                                            12)अंतरजातीय तनाव और संघर्ष को बढ़ावा देना -              13) अंतरजातीय विवाह में बाधक                                 14)  योग्य वैवाहिक संबंध स्थापित करने में बाधक         15) योग्य बर बधू  के चुनाव में बाधक                         16) धार्मिक क्षेत्र में ब्राह्मणों का अधिपत्य-
जातिव्यवस्था के परिवर्तनकारी आधुनिक कारक -


वर्णेव्यवस्था और जातिव्यवस्था को मजबूत और प्रोत्साहित करने के लिए कुछ विशेष वातावरण और सामाजिक आर्थिक राजनीतिक वैधानिक कारको की अहम भूमिका होती  थी । प्राचीन और मध्य भारत काल मे कृषक सामाजिक आर्थिक व्यवस्था थी  जिसमे कुछ कारको का अभाव था तो कुछ वर्णेव्यवस्था के स्थायीत्व के लिए प्रेरक कारको तत्वों के  प्रमुखता भी थे। ।जैसे कि  सरल समाज , ग्रामीण कृषक समाज व्यवस्था,  संयुक्त परिवार व्यवस्था,  जजमानी व्यवस्था , वर्णेव्यवस्था को ईश्वरीय  व्यवस्था मानना, ईश्वरवाद, भाग्यवाद, पुरोहितो की उच्च स्थिति,  राजा  को भगवान का  सावित किया जाना ,  ब्राह्मण को ईश्वर का प्रतिनिधि मानना, समतावादी  शिक्षा   एवं स्त्री शिक्षा के सामान अवसर का अभाव, औधोगिकरण  का अभाव, नगरीकरण का अभाव, आधुनिकता का अभाव, पश्चमीकरण का  अभाव, वैश्विककरण का अभाव, उदारीकरण के अभाव, संचार  एवं मनोरंजन के साधनों का अभाव,व्यावसायिक गतिशीलता का अभाव,  अतःविवाहि व्यवस्था, वाल विवाह को प्रोत्साहन, विधवा विवाह का प्रतिबंध, विधुर जीवम  को प्रोत्साहन, अंतरजातीय विवाह पर प्रतिबंध आदि  कारको की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हमसब जानते है कि केवल ग्रामीण  कृषक ,संयुक्त परिवार और अंतःविवाहि समाज मे  ही जजमानी  व्यवस्था
(सेवा के बदले सेवा  या वस्तुओं का विनिमय) के आधार पर ही जातिव्यवस्था को बलपूर्वक   स्थापित किया जा सकता था। क्योंकि वर्णेव्यवस्था यदि  केवल सामाजिक व्यवस्था होती तो कब का उसे विद्रोह करके मिटा दिया जाता लेकिन उसे भगवान ब्रह्मा द्वारा स्थापित ईश्वरीय व्यवस्था के रूप में स्थापित कर जनसामान्य  और उत्पादक वर्ग के शोषण का हथियार बनाया गया।


आधुनिक भारत मे वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा की औचित्य  एवं प्रसांगिकता-
उपरोक्त वृहत विश्लेषण के उपरांत आज जरूरी  है कि इस शोषण मुल्क व्यवस्था की आधुनिक  भारतीय समाज में औचित्य और भूमिका पर पुनः चर्चा की जाय।   भारतीय हिन्दू समाज के लिए वर्णेव्यवस्था और जातिव्यवस्था क्या आज आवश्यक एवं जरूरी है? यदि है तो क्यो और नही तो क्यो? यदि उपयोगी नही है तो इस व्यवस्था का दूसरा और कोई क्या विकल्प स्थापित किया जा सकता है? इनही महत्वपूर्ण  मुद्दों के अनुरूप वर्णेव्यवस्था और जातिव्यवस्था की प्रासंगिकता पर निम्नलिखित आधारों पर इसकी समीक्षा की जा सकती है।


 1)आधुनिक बाजार और व्यावसायिक गतिशीलता - जैसा कि मालूम है आधुनिक भारतीय समाज उपरोक्त महत्वपूर्ण प्रेरको ,कारको  जैसे औधोगिकरण, वैश्वीकरण, उदारीकरण,संचार, आधुनिक समान शिक्षा  के दौर से गुजर रहा है। जिससे  व्यक्ति  के  व्यावसायिक गतिशीलता में तीब्र गति से बदलाव आया है। 
2) व्यावसायिक अवसरों में बढ़ोतरी- आधुनिक युग मे सही योग्यता और प्रशिक्षण अनुरूप व्यवसाय पेशा चुनने का  दायरा भी  काफी विस्तृत हो गया है। आज बाजार और  उधोगो को ध्यान में रखते हुए मानव संसाधन तैयार और ट्रेण्ड किये जा रहे है। बहुराष्ट्रीय कंपनियो को आज  विना जाति  वर्ण के मापदंड और भेद के योग्य निपूर्ण प्रशिक्षित लोगो की जरूरत है जो उनकी वैश्विक माँग की पूर्ति करने में सहायक हो। 
3) प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा में बढ़ोतरी- आधुनिक उदारीकरण , व्यावसायिक गतिशीलता और प्रतिस्पर्धा के युग मे खासकर कोरोना काल मे आपदा के कारण  किसी भी भी व्यक्ति या समूह का कोई भी स्थायी  पेशा,काम , व्यवसाय , नौकरी  किसी का नही रह पायेगा। 
4)अवसर और मांग पूर्ति के सिद्धान्त -  आज के समय मे आवश्यकतानुसार हरेक व्यक्ति को अवसर ,सुविधा ,इच्छा ,लाभ  हानि और बाजार की जरूरत के अनुसार 6माह या  1वर्ष में अपनी पेशे को बदलना भी  पड़ता है या भविष्य में बदलना पड़ सकता है। 
5) जाति और वर्ण गतिशीलता की समस्या-  व्यवसायीक गतिशीलता के कारण स्थायी  व्यवसाय पर निर्भरता  पूर्णतः खत्म हो सकती है । वैसी परिस्थितियों में यदि एक  ब्राह्मण जाति का  पुजारी पूजा,पुरोहिताई  को छोड़कर रेजा  कुली  सफ़ाई या चौकीदार का काम करे, सोनार कपड़े का काम करे, सफाई करनेवाला  दूध का काम करे, धोबी  मिस्त्री का काम करे , कुली  दफ्तर में क्लर्क का काम करे, चमार अपनी दुकान छोड़कर  अपनी इच्छा और रुचिनुसार सोनार दर्जी या हलबाई  का काम करे। तो  जातिगत पेशागत गतिशीलता के कारण कब किस समय कौन व्यक्ति किस  वर्ण और जाति से जाना पहचाना  और जाना  जाएगा?  इसकी कोई सटीक उत्तर नही प्राप्त हो सकता है। क्योंकि इस पर निर्णय लेने का कोई भी उचित पैमाना स्थायी रूप से उपयोगी नही होगा।  इस प्रकार के उदाहरण उदारीकरण और  वैश्वीकरण के दौर में  व्यावसायिक गतिशीलता के कारण नित्य प्रति आते रहेंगे।  
6) ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य  और शुद्र द्वारा कर्तव्य विमुख होने पर उसका विकल्प क्या होगा?   क्योंकि इसी जिम्मेदारी की  क्षत्रिय द्वारा  निर्वहन में असफलता के कारण भारत सदियों तक हूणों मंगोलो और मुगलों का गुलाम रहा।  
7)वर्णेव्यवस्था में महिलाओं की प्रस्थिति की समस्या-  आज यदि कोई चमार जाती की महिला प्रोफेसर बनकर किसी  अल्पशिक्षित ब्राह्मण ऑटोचालक, कुली,  मिस्त्री  से विवाह करती है तो उस महिला की जाति और वर्ण वर्णेव्यवस्था के अनुरूप क्या होगी? मानवीय दृष्टिकोण से चाहे वो महिला हो पुरूष उसके स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहना चाहिए लेकिन भारतीय पुरुष प्रधान  हिन्दू समाज मे ऐसा संभव नही हो सकता है।


8) अंतःवैवाहिक प्रतिबंध का कमजोर होना-  डॉ अम्बेडकर के अनुसार जातिप्रथा को  मजबूत करने में वैवाहिक और सामाजिक प्रतिबंध  की अहम भूमिका होती है। लेकिन आधुनिक दौर में अतःविवाहि (जातिगत विवाह)व्यवस्था भी ढीली पड़ रही है । लड़के लड़कियों की उच्च और तकनीकी शिक्षा के अवसर ने वैवाहिक युगल चुनने की स्वतंत्रता भी प्राप्त हो रहे है।  जिससे  अंतरजातीय  विवाह, विधवा विवाह  की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। 
9) जातिगत ढाँचे को मजबूत करनेवाली सतीप्रथा, बालविवाह, विधुर जीवन का कोई सामाजिक धार्मिक औचित्य नहीं  रह गया है।  10) जातिगत ब्राह्मण  की प्रभुत्व और प्रस्थिति में बदलाव- आज के दौर में समान शिक्षा के कारण तथा गायत्री परिवार जैसे प्रगतिशील धार्मिक संगठनों के अभियान से  समाज के  सभी  वर्ग के  लोगो मे धर्म के अधिकार के प्रति जागरूकता आयी है जिससे   शुद्र अछूत वर्ण के लोग भी  कर्मकांड संगीत आदि का प्रशिक्षण प्राप्त कर मठ, मंदिर ,समाज के पंडित पुरोहित का कार्य करने में रुचि दिखा रहे है। इस संदर्भ में उदाहरणस्वरूप यदि  मनोज मोची नामक चमार जाति का व्यक्ति ब्राह्मण  के अनुरूप  शिक्षा ग्रहण कर किसी प्रमुख  मंदिर या समाज का ब्राह्मण  पंडित बन जायेगा तो उसे किस वर्ण  जाति और नाम के साथ संबोधित किया जाएगा? क्या उसे मनोज चतुर्वेदी ,मिश्रा दुबे ,पांडेय  तिवारी पाठक के नाम से पहचाना जाएगा या उसके  मूल जातिगत पैतृक  नाम पंडित मनोज मोची, आचार्य  मनोज मोची के नाम से? ।   दूसरी आज  जातिय कट्टरता के कारण कोई चमार धोबी पासी जाति का व्यक्ति योग्यता गुण चरित्र व्यवहार और संस्कार से उच्च होकर ब्राह्मण पंडित  पुरोहित का  कार्ये करता या करना चाहता भी है तो उसे समाज मे  उचित सामाजिक स्वीकार्येता नहीं मिलती है।  
 11) वर्णमूलक जातिमूलक उपनामों से उत्पन्न संघर्ष-      आधुनिक परिस्थिति में आजअगर कोई भी ये दावा करता है कि शर्मा ,मिश्रा, चतुर्वेदी, पांडेय, त्रिपाठी केवल ब्राहमणों के द्वारा प्रयोग किया जाने वाला गोत्र है, तो यह काफी  विवादास्पद होगा । हम ज्यादा से ज्यादा ये मान सकते हैं कि हम किसी शर्मा उपनाम वालो  को ब्राह्मण सिर्फ इसीलिए मानते हैं क्योंकि वो लोग शर्मा ब्राह्मण गोत्र का प्रयोग करते हैं। लेकिन अगर एक शुद्र, दलित, पिछड़ा ,चंडाल भी शर्मा,भारद्वाज, मिश्रा ,जोशी आदि  ब्राह्मण मूलक गोत्र का प्रयोग करने लगता है और उसकी वंसज भी ऐसा ही करती हैं तो फिर ये कैसे कह जा सकता है कि वो आदमी शुद्र  है या फिर ब्राह्मण है? क्योंकि आधुनिक शिक्षा के समान अवसर ने हरेक व्यक्ति को मान सम्मान से जीने का हक और अधिकार दिया है जिसमें सम्मानजनक उपनाम रखना या न रखना भी व्यक्ति की मौलिक रुचि और संबैधानिक अधिकार में शामिल है। हमे  सिर्फ और सिर्फ आधुनिक तर्के और सन्दर्भ के दावों पर ही भरोसा करना पड़ेगा। 
कोई भी तथाकथित जातिगत ब्राह्मण यह बात पूरी जिम्मेदारी से  नहीं कह  सकता है कि वो असल में  शुद्र ,एकदलित, निकृष्ट ,चंडाल ,शुद्र के वंश से भी हो सकता है। क्योंकि   सिर्फ ब्राहमण मुलक जातिगत  उपनाम रखने से या  होने से उसे इतने विशेष अधिकार सम्मान और खास सामाजिक आर्थिक फायदे मिले हुए हैं।अतः वे सब अपनी पैतृक पदवी के आधार पर योग्यता शिक्षा  गुण व्यवहार आचार विहीन होते हुए भी समाज मे अपनी महानता और सम्मान बरकरार रखना चाहेगे।               
                               आधुनिक  भारतीय समाज के कुछ प्रमुख झंडाबरदार लोग मृतप्राय,बदबूदार, अव्यवहारिक व्यवस्था  को आधुनिक युग मे भी लागू करना चाहते है ताकी विरासत से प्राप्त पैतृक सम्मान और सामाजिक हैसियत बरकरार  रख सके। इस संदर्भ में  आज जिस हिंदू राष्ट्र की बात आरएसएस कर रहा है, वही बात गांधी अपने रामराज्य के सिद्धांत में कह चुके हैं। आरएसएस भी एक ऐसा हिंदू राष्ट्र चाहता है जहां जातियां  खत्म ना हों  उसकी अस्तित्व बना रहे और समता समानता बन्धुत्व भाईचारे की जगह  समरसता से सारी जातियों के लोग रहें।  ध्यान देने की जरूरत है संघ  शाब्दिक जंग में समाज को उलझाना चाहता है और  वह समता का प्रयोग न कर समरसता का प्रयोग करता है। इस प्रकार गांधी और संघ जाति का उन्मूलन नहीं चाहते बल्कि उसे जातिवाद को हर हाल में  ऊँचनीच ,भेदभाव को बनाए  रखने के लिए  स्थापित रखना चाहते हैं। 
इसी संदर्भ में महात्मा गांधी 1916 में मद्रास के एक मिशनरी सम्मेलन में कहते हैं- 
"जाति का व्यापक संगठन न केवल समाज की धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करता है, बल्कि यह राजनीतिक आवश्यकताओं को भी परिपूर्ण करता है। जाति व्यवस्था से ग्रामवासी न केवल अपने अंदरूनी मामलों को निपटारा कर लेते हैं, बल्कि वे इसके द्वारा वो शासक शक्ति या शक्तियों द्वारा उत्पीड़न से भी निपट लेते हैं। एक राष्ट्र जो जाति व्यवस्था उत्पन्न करने में सक्षम हो उसकी अद्भुत सांगठनिक क्षमता को नकार पाना संभव नहीं है"। 
सन्दर्भ-एक था डॉक्टर एक था संत (अरुंधति रॉय, पेज नंबर-21)
आगे महात्मा गांधी नवजीवन (1921) गुजराती पत्रिका में लिखते हैं - 
"मेरा विश्वास है कि यदि हिंदू समाज अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है तो वजह ये है कि इसकी बुनियाद जाति व्यवस्था के ऊपर डाली गई है। जाति का विनाश करने और पश्चिमी यूरोपीय सामाजिक व्यवस्था को अपनाने का अर्थ होगा कि हिंदू आनुवांशिक पैतृक व्यवस्था के सिद्धांत को त्याग कर दें, जो जाति व्यवस्था की आत्मा है। आनुवांशिकी सिद्धांत एक शाश्वत सिद्धांत है। इसको बदलने से अव्यवस्था होगी। मेरे लिए ब्राह्मण का क्या उपयोग है यदि मैं उसे जीवन भर ब्राह्मण ना कह सकूं। यदि हर रोज किसी ब्राह्मण को शूद्र में परिवर्तित कर दिया जाए और शूद्र को ब्राह्मण में तो इससे तो अराजकता फैल जाएगी"। 


उपरोक्त गांधी एवं  संघ के तर्कों से जाहिर होता है कि   की इन  राष्ट्रवादी लोगों को  मुफ्त का दास और सेवा के लिए स्थायी तौर पर ग़ुलाम चाहिए जो की सिर्फ हिंदू (ब्राह्मण) धर्म के चौथे वर्ण  शुद्र मे उपलब्ध हैं ।.शूद्र और अति शूद्र चाहे गांधी हो , तिलक हो , संघ हो इन सभी का  समता को नजरअंदाज कर समरसता से  मतलब  वही वैदिक कालीन मनुस्मृति की पुनर्स्थापना है जहाँ मनुष्य को मनुष्य होने का कोई अहसास ही नही होने दिया जाता था ।                        जैसा कि वर्णव्यवस्था में माना जाता है कि मनु ने ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य के लिये अनिवार्य शिक्षा की बात कही किन्तु शूद्रों के लिये शिक्षा की बात नहीं कही क्यों?! यदि शुद्र केवल ऊपर के सभी उच्चतर वर्णो की सेवा ही करे और शिक्षा से वंचित रहे  तो फिर वह विद्धवान ज्ञानी योग्य सांस्कारिक कैसे बनेगा और अच्छे कर्म द्वारा अपना वर्ण कैसे बदलेगा?
महाभारत में तो भगवान श्रीकृष्ण कर्ण को जानते हैं कि यह कुंती पुत्र है फिर भी जीवन भर उसे सूत पुत्र के नाम से क्यों संबोधित किया गया? जबकी ज्ञान बल और शौर्य में वह अर्जुन से भी  श्रेष्ठ था।यदि कोई  यादव साहू धोबी मोची ज्ञानवान संस्कारवान हो कर्मकांडी हो, वेदों का ज्ञान भी हो  तो क्या वह अपनी  वर्ण और जाति अपने योग्यता अनुसार  परिवर्तन कर सकता है ? क्या  कोई ब्राह्मण उसे  अपने वर्ण में स्वीकार  कर बेटी रोटी का संबंध कायम कर पायेगा ? यह यक्ष प्रश्न भविष्य में भी वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के साथ उठ खड़ी होगी।                        इसलिए आज आधुनिक युग मे वर्ण जाति की ढोल पीटना वेहद शर्मनाक हरकत होगी। भले ही भूतकाल में कितना भी महत्वपूर्ण क्यो न रही हो लेकिन आज अनुपयोगी है। जातिप्रथा रूपी भूतकाल की कब्र पर भारत की उज्वल भविष्य की इमारत और इबारत नही खड़ी की जा सकती है। क्योंकि किसी भी तार्किक बौद्धिक दर्शेनीक  वैधानिक धार्मिक दृष्टिकोण से इसकी औचित्य और प्रासंगिकता आज प्रमाणित नही किया जा सकता है।


निष्कर्ष- आज आधुनिक हिन्दू समाज के साथ साथ सभी भारतीय में  वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा का कोई खास औचित्य प्रसांगिकता नही  रह गई है। यह अनुयायियों और कलबाधित (OUTDATED) हो गई है। आधुनिक भारतीय समाज  मे जन्मजात इंसान को सिर्फ इंसान मनुष्य के रूप देखना होगा। उसे अच्छा या बुरा, सद्चरित्र या बुरे चरित्र वाला, सद्गुणी या दुर्गुणी, अच्छी सोच या बुरी सोच वाला, सद्भाव या दुर्भाव वाला  मानना ही   पूर्वनिर्धारित नकारात्मक सोच होगा।   किसी को भी जन्मना जाति की  टैग  और कर्मणा  वर्ण की टैग प्रदान करने की दोहरी टैग मुहर प्रदान  करने की षड्यंकारी व्यवस्था  को समाप करना होगा । अर्थात इंसान को  जनमते ही एक जातीवाद की  अमिट स्थायी  मुहर (टैग)और भविष्य में   पेशा बदलने की स्थिति या संभावना  में वर्ण का दोहरी  टैग की  व्यवस्था की गई  है उसे अवैध और अमान्य करना होगा । इसके लिए                     सभी मानव को जन्म के उपरांत समाज मे उचित शिक्षा ,प्रशिक्षण,  सहयोग प्रदान  कर प्राकृतिक रूप से सुप्त  प्रतिभा विकास का   सभी क्षेत्रों मे समान अवसर दिया जाय। फिर विकसित प्रतिभा योग्यता निपुणता अनुरूप समाज में इच्छानुसार कार्ये व्यवसाय जिम्मेदारी उठाने के लिए प्रेरित किया जाय। उस जिम्मेदारी  भूमिका को व्यक्ति विशेष किस प्रकार  निर्वाह करता है उसके अनुसार उसके ईमानदारी सत्यनिष्ठा  राष्ट्रभक्ति बफादारी  और कर्तव्यपरायणता कीं मूल्याकंन किया जाय। 
 किसी  इंसान को इंसान नहीं मानकर किसी  जन्मजात वर्ण ,रंग ,जाति  प्रजाति पंथ संप्रदाय का श्रेष्ठ या निकृष्ट  व्यक्ति के रुप मे  मान्यता स्थापित करना निसंदेह  सम्पूर्ण मानवता इंसानियत की  अनादर और तौहीमी होगा। 
समाज मे हम सब इंसान इंसान के रूप में जम्म लेते है  उसके उपरांत  शिक्षा के अवसर ,सामाजिक आर्थिक अवसर ,सहयोग ,सहकार ,सद्भाव प्राप्त कर मानव का समाजीकरण होता है। फिर इच्छा ,गुण , योग्यता शिक्षा ,निपुणता प्रशिक्षण के अनुसार मानव समाज मे अपनी  उचित स्थान  पेशे, व्यवसाय या नॉकारी के माध्यम से प्राप्त करता है । गुण  कर्म शिक्षा योग्यता अनुरूप जो स्थान पदवी स्टेटस समाज मे व्यक्ति बना पायेगा वही उसकी पहचान होगी और  उसी के आधार पर उसे सम्मान भी प्राप्त होगा। 
आज आधुनिक भारत मे वर्ण और जाति व्यक्ति और उसके समूह द्वारा स्वघोषित जन्मजात मानसिक उच्चता और नीचता का घोतक बन गया है। अतः आज जरूरत है कि हम सब सत्याग्राही बनें।हमसब  काल्पनिक, अमानवीय,  मिथ्या  वर्णवाद जातिवाद  वंशवाद की अहम के जकड़ से मुक्त होकर एकात्म समतावादी ,एकता ,बंधुत्ववादी  और सशक्त  जातिविहीन वर्णविहीन भारतीय समाज तथा राष्ट्र का निर्माण करें | जिसमें व्यक्ति की गरिमा सम्मान और महानता उसके गुण कर्म स्वभाव योग्यता निपुणता क्षमता और ज्ञान से हो नाकी किसी  जन्मजात जाति और वर्ण से।  


         


 लेखक- भोला चौधरी


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