माँ होती

माँ होती 
माँ होती तो कहती 


तूं आजकल ख़ाली कविता ई 
लिख लाग्यो ,के लिख्यो
दिखा तो सरी ,बोलती 
काम तो तुम 
ठीक ही करते हो ,
ऐसे लोगों के बारे में 
ही लिखो ,जरूर लिखो ,
उनका दुख 
कौन देखता है ,लिखो बेटा ,बहुत दिन 
काम किया ,
पोतों को करने दो 
तुम और खोजो उनके दुख
बहुत दुख हैं उनके पास -
अथाह जिनका 
कोई छोर नहीं ।


मैं कहता 
कि तुम्हारे बारे में भी कविता 
लिखी है माँ ,सुन कर कहती ,
तुमने इतना 
दुख कैसे समझा बेटे ,
तुम तो 
बात-बात पर ग़ुस्सा करते थे ,
खाने में 
जरा- सी चूक हुई ,
तो माँ को समझाता कि 
वह भी तुम्हारे दुख के लिए ही 
ग़ुस्सा होता था 
माँ ,मैंने पिता पर भी 
कविता लिखी है 
वह पढ़ कर तो 
माँ रोने लगती ,
मैं जानता था कि ऐसे ही होगा 
माँ ने सुबकते हुए कहा - 
इतनी तीख कहाँ 
दबा रखी थी बेटा ।


होती माँ तो कहता कि माँ 
इतनी तीख से ही कविता बनती हैं न माँ 
मैं क्या करता !


प्रमोद बेड़िया