कौन हैं राधाकृष्ण --

 


राधाकृष्ण को हमारे हिन्दी लेखकों ने उनकी जन्मशताब्दी पर भी याद नहीं किया। जाहिर है, वे किसी ऐसे गुट के नहीं थे, जो उन्हें याद करता। हिन्दी साहित्य जगत में गुटबाजी का ऐसा आलम है कि हम उन्हें याद भी नहीं करते, न जन्म तिथि पर पुण्य तिथि पर। वे ऐसे कथाकार थे, जिन्हें प्रेमचन्द पुत्र की तरह प्रेम करते थे, गुरबत के दिनों में उनका खर्च चलाते थे और जब प्रेमचन्द का निधन हुआ तो राधाकृष्ण 'हंस’ को संभालने राँची से बनारस चले गए थे। इनकी कथा-प्रतिभा को देखकर प्रेमचन्द ने कहा था -- 'यदि हिन्दी के उत्कृष्ट कथा-शिल्पियों की संख्या काट-छाँटकर पाँच भी कर दी जाए तो उनमें एक नाम राधाकृष्ण का होगा।’
राधाकृष्ण का जन्म राँची के अपर बाजार में 18 सितम्बर 1910 को हुआ था और निधन 3 फरवरी 1979 को। उनके पिता मुंशी रामजतन मुहर्रिरी करते थे। उनके छह पुत्रियाँ थीं और एक पुत्र राधाकृष्ण, जो बहुत बाद में हुए। पर, राधाकृष्ण के साथ यह क्रम उलट गया यानी राधाकृष्ण के पाँच पुत्र हुए व एक पुत्री। राधाकृष्ण जब चार साल की उम्र के थे तो उनके पिता का निधन हो गया। 1942 में इनकी शादी हुई। उनके निधन के सत्रह साल बाद उनकी पत्नी का देहान्त भी 1996 में हुआ। 
अपनी गुरबत की ज़िन्दगी के बारे में उन्होंने लिखा है --  'उस समय हम लोग ग़रीबी के बीच से गुज़र रहे थे। पिताजी मर चुके थे। घर में कर्ज़ और ग़रीबी को छोड़कर कुछ भी नहीं बचा था। न पहनने को कपड़ा और न खाने का अन्न।’ अभावों में उनका बचपन बीता। चाह कर भी स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाई। किसी तरह एक पुस्तकालय से पढ़ने-लिखने का क्रम बना। कुछ दिन मुहर्रिरी सीखी। वहाँ मन नहीं लगा तो एक बस में कण्डक्टर हो गए। 1937 में यह नौकरी भी छोड़ दी। लेकिन इसी दरम्यान कहानी लेखन में सक्रिय हो गए। सबसे पहले 1929 में उनकी कहानी छपी गल्प माला में। इस पत्रिका को जयशंकर प्रसाद के मामा अम्बिका प्रसाद गुप्त निकालते थे। कहानी का शीर्षक था -- सिन्हा साहब। इसके बाद तो माया, भविष्य, त्यागभूमि आदि पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपने लगे। प्रेमचन्द राधाकृष्ण की प्रतिभा देख पहले ही कायल हो चुके थे। इसलिए हंस में भी राधाकृष्ण छपने लगे थे। जब प्रेमचन्द का निधन हुआ तो शिवरानी देवी ने हंस का काम देखने के लिए उन्हें राँची से बुला लिया। यहीं रहकर श्रीपत राय के साथ मिलकर 'कहानी’ निकाली। पत्रिका चल निकली, लेकिन वे ज्यादा दिनों तक बनारस में नहीं रह सके। इसके बाद वे बम्बई गए और वहाँ कथा और सम्वाद लिखने का काम करने लगे। पर बम्बई ने इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला और वे बीमार होकर राँची वापिस  चले आए। फिर कभी उधर नहीं देखा। 
कुछ दिनों कलकत्ते में रहे। वहाँ मन नहीं लगा। इस बीच माँ की मृत्यु ने इन्हें तोड़ दिया। अमृत राय ने लिखा हैै --  'मेरी पहली भेंट (राधाकृष्ण से) 1937 के किसी महीने में हुई। वो हमारे घर आए। हम लोग उन दिनों राम कटोरा बाग में रहते थे। हम दोनों ही उस समय बड़े दुखियारे थे। इधर, मेरे पिता को देहान्त अक्तूबर 1936 में हुआ था और उधर लालबाबू (राधाकृष्ण को लोग इसी नाम से पुकारते थेे) की माँ का देहान्त उसी के दो चार महीने आगे-पीछे हुआ था। एक अर्थ में लालबाबू का दुख मेरे दुख से बढ़कर था, क्योंकि उनके पिता तो बरसों पहले उनके बचपन में ही उठ गए थे और फिर अपनी नितान्त सगी एक मां बची थी, जिसके न रहने पर लालबाबू अब बिल्कुल ही अकेले हो गए थे।’
राधाकृष्ण को 1947 में बिहार सरकार की पत्रिका 'आदिवासी’ का  संपादक बनाया गया। इसका प्रकाशन केन्द्र राँची ही था। पहले यह नागपुरी में निकली, लेकिन बाद में हिन्दी में निकलने लगी। इस पत्रिका से राधाकृष्ण की एक अलग पहचान बनी। आदिवासियों को स्वर मिला। बाद में वे पटना आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर हो गए। जब राँची में आकाशवाणी केन्द्र की स्थापना (27 जुलाई, 1957) हुई तो वे यहाँ आ गए।
बस कण्डक्टरी से आकाशवाणी तक के सफ़र में ग़रीबी और अभावों ने कभी साथ नहीं छोड़ा। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। लेखनी लगातार सक्रिय रही। उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण आदि का क्रम चलता रहा।
राधाकृष्ण ने अपनी कहानियों की लीक ख़ुद ही बनाई। उस दौर में, जब कहानी के कई स्कूल चल रहे थे, प्रसाद की भाव व आदर्श से युक्त, प्रेमचंद की यथार्थवाद से सम्पृक्त, जैनेन्द्र और अज्ञेय के साथ मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित कहानियों का चलन था। पर राधाकृष्ण ने किसी भी बड़े नामधारी रचनाकारों का अनुसरण नहीं किया। न उनकी प्रतिभा से कभी आक्रान्त हुए। उन्हें अपने जिए शब्दों, अनुभवों पर दृढ़ विश्वास था। आँखन देखी ही वे कहानियाँ लिखा करते थे। पर, कभी सुदूर देश की समस्या पर भी ऐसी कहानी लिख मारते थे, जैसे वह आँखों देखी हो। आदिवासियों के जीवन और उनकी विडम्बना, सहजता और सरलता को भी अत्यन्त निकट से जाना-समझा। यह भी देखा कि इनकी ईमानदारी का दिकू (बाहरी आदमी) कैसे लाभ उठाते हैं, उन्हें कैसे ठगते हैं। इसके साथ ही यह भी देखा कि आदिवासी कैसे अपने ही बनाए टोटमों में बर्बाद हो रहे हैं। उनकी 'मूल्य’ कहानी ऐसी ही एक प्रथा से जुड़ी है। आदिवासियों के उराँव जनजाति में प्रचलित ढुकू प्रथा को लेकर लिखी गई है।  इसी तरह उनकी कहानी 'कानूनी और गैरकानूनी’ ज़मीन से जुड़ी हुई है। लेखक की ज़िन्दगी, वसीयतनामा, परिवर्तित, रामलीला, अवलम्ब, एक लाख सत्तानवे हज़ार सात सौ छियासी, कोयले की ज़िन्दगी, ग़रीबी की दवा निम्र मध्य वर्ग से सरोकार रखने वाली कहानियाँ हैं। इंसानियत के स्खलन, आदमी की बदनीयती, सम्वेदनाओं का घटते जाना आदि को बहुत बेधक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। विश्वनाथ मुखर्जी ने लिखा है -- हिन्दी में कुछ कहानियाँ आई हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। गुलेरी जी की 'उसने कहा था’, प्रेमचंदजी की 'मंत्र’, कौशिक जी की 'ताई’...रांगेय राघव की 'गदल’ आदि कहानियाँ भुलाई जाने वाली नहीं हैं। ठीक उसी प्रकार राधाकृष्ण की 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासी’ भी। अमृत राय ने भी माना कि 'अवलम्ब’ और 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासी’ जैसी कहानियां हिन्दी में बहुत नहीं हैं।’
उनकी एक और कहानी जिसकी चर्चा या ध्यान लोगों का नहीं गया, वह है 'इंसान का जन्म’। श्रवणकुमार गोस्वामी ने भी राधाकृष्ण पर लिखे अपने विनिबन्ध में इस कहानी की चर्चा नहीं की है। बंगलादेश पर पाकिस्तानी फौजों के अत्याचार और बाद में भारतीय फौजों के आगे उनके सपर्मण को केन्द्र में रखकर बुनी गई है यह कहानी। यह उनके किसी संग्रह में शामिल नहीं है। जबकि रामलीला, सजला (दो खण्ड), गेंद और गोल संग्रह हैं। इनमें कुल मिलाकर 56 कहानियां हैं। इसके अलावा फुटपाथ, रूपान्तर, सनसनाते सपने, सपने बिकाऊ हैं आदि उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। नाटक, एकांकी, बाल साहित्य भी अकूत हैं। उनकी ढेर सारी रचनाएँ अप्रकाशित भी हैं। अपने समय की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रकाशित होते रहे, जिनमें साप्ताहिक हिन्दुस्तान, आजकल, कादम्बिनी, नई कहानियाँ, विश्वमित्र, विशाल भारत, सन्मार्ग, प्राची, ज्ञानोदय, चाँद, औघड़, धर्मयुग, सारिका, नवनीत, बोरीबन्दर, माया, माध्यम, संगम, परिकथा, क ख ग, माधुरी, गंगा, त्रिपथगा, प्रताप, वर्तमान प्रमुख हैं।
राधाकृष्ण घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से व्यंग्य भी लिखते थे। इनके लिखे व्यंग्य पर आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है, 'घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी के उपनाम से कहानियाँ लिखकर हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में युगान्तर लाने वाले व्यक्ति आप ही हैं। ...आयासहीन ढंग से लिखा गया ऐसा व्यंग्य हिंदी साहित्य में विरल है।’
ऐसा विरल साहित्यकार हिन्दी जगत में उपेक्षित रह गया। आखिर जिस कथाकार ने अपने समय में जयशंकर प्रसाद गुप्त, प्रेमचन्द, डा. राजेन्द्र प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी, अमृत राय, विष्णु प्रभाकर, फ़ादर कामिल बुल्के को अपना प्रशंसक बना लिया था, उसे हमारे आलोचकों ने क्यों उपेक्षित छोड़ दिया?


संजय कृष्ण