हरदम मुँह से ज़हर उगलते हो.. कभी अमरत भी उगला करो ! हसरतें मुक़म्मल जहाँ की रखते हो.. कभी मिट्टी से भी वास्ता रखा करो ! टूटी हुई कब्र को यूँ न ठुकरा के चलो.. आने वाले कल को भी तो सोचा करो ! नज़रें मिला कर मुँह क्यों फेर लेते हो.. कभी अपना समझकर मुस्कुराया भी करो ! गुरुर के नशे में मौत याद आती नहीं कभी.. कभी मरघट का चक्कर भी लगाया करो ! सोच-सोच में फर्क हो सकता है शायद.. कभी इंसानियत का परिचय भी दिया करो
~ धर्मेन्द्र भावसार