हाथ में रोटी लिए रेल की पटरियों पर ट्रेन से कटकर मरते हुए मज़दूर। सड़कों पर थककर मरते हुए मज़दूर।

गरज़परस्त ज़हां में वफ़ा तलाश न कर !


हाथ में रोटी लिए रेल की पटरियों पर ट्रेन से कटकर मरते हुए मज़दूर। सड़कों पर थककर मरते हुए मज़दूर। भूख से और दवाओं के अभाव में मरते मज़दूर। कोरोना के संक्रमण से मरते हुए मज़दूर। रेलवे स्टेशन, सड़कों और राशन की दुकानों पर लाठी खाते मज़दूर। महानगरों के फुटपाथों पर रोते-बिलखते असंख्य मज़दूर। देश के निर्माता मज़दूरों के इतिहास का यह सबसे बर्बर समय है। यह सही है कि इस कोरोना महामारी में  किसी भी व्यवस्था के लिए देश भर में फैले करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के रहने और दो जून के भोजन की व्यवस्था बेहद कठिन काम है। कुछ हद तक यह हो भी जाय तो संकटकाल में अपने घर-परिवार की याद किसे नहीं सताती ? तो आखिर गलती कहां हुई ? ये मज़दूर अपने गांव और घर पहुंच गए होते तो शायद उनके साथ ये त्रासदियां नहीं होतीं। गांवों में अब भी लोग मिल-बांटकर खा और जी लेते हैं। उन्हें अपने घर पहुंचाने की जो क़वायद केंद्र और राज्य सरकारों ने अभी शुरू की है, वह लॉकडाउन के पहले भी हो सकती थी। तब सरकार को शायद डर था कि ट्रेनों और बसों में ज्यादा भीड़ से कोरोना संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा, लेकिन शहरों मे अमानवीय परिस्थितियों में झुंड बनाकर ये लोग जैसे रह रहे हैं, वहां कौन सी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन हो रहा है ? इतिहास अपने श्रमिकों के साथ इस बर्बरता को बहुत लंबे समय तक भूल नहीं पाएगा !


हमारा फ़ैसला हुआ था जहां
लोग सारे थे हम नहीं थे वहां