अपनी हरियाली साथ लिए फिरता हूं,

जड़ों से उखड़े लोग
भटकते फिरते हैं 
तपती धरती पर
सालों का पसीना
गिरकर भाप बना
उगा गैरों के घर
आज आंखो पर
खुद मौत मंडराई है
धुंधलका घना
चहुंओर अतल गहराई है
लेकिन कसकर थामा है
सपनों से खाली गट्ठर ही
उम्मीद मिला करती है
अंधेरे कोनों में भी
आज मैं बेठौर सही
कल फिर जड़ों में खाद 
जमाऊंगा
अपनी हरियाली साथ
लिए फिरता हूं,
बरखा आने दो,
मैं फिर उम्मीद उगाऊंगा।


(केरल से पौधा लिए लौटते मजदूर की तस्वीर)