बुद्ध पूर्णिमा


भगवान बुद्ध के लिए एक कविता


क्षमा करना, तथागत
मुझे नहीं चाहिए 
जीवन के सुख-दुख, माया-मोह से मुक्ति
निर्वाण तो बिल्कुल नहीं
तृष्णाओं की अनंत कथा ही सही
कितना आत्मीय है यह जीवन
कितनी अपनी धरती
कितना अपना आकाश
कितने मोह, कितने पाश 
कितनी स्नेहिल, गीली स्मृतियां


अभी कई और जन्म लेने होंगे मुझे
उनसे मिलने को
जिनसे मिलना स्थगित रहा इस जीवन में
उन अजाने रास्तों की
जिनकी ऊष्मा से सिहरे नहीं पांव
उन नदियों, समुद्रों की
जिनके जल से भींगी नहीं देह
और उन अनाम, अदेखे लोगों की
जिन्हें देख सकतीं मेरी आंखें
तो शायद कुछ और बड़ा होता
मेरी इच्छाओं का छोटा-सा संसार


क्या करूं कि बांधता है मुझे
मोह का अनंत विस्तार
भिंगोता है अनुराग का हल्का भी स्पर्श
बिछोह में जागती है करुणा
उमड़ता है प्यार उन तमाम चीजों पर
जो एक दिन छूट जाने वाली हैं


मुझे नहीं चाहिए निर्वाण, प्रभु
मैं मृत्यु से मिलूंगा भी तो
मिट्टी की सोंधी गंध
रिश्तों की मीठी आंच
जीवन का उछाह लेकर ही मिलूंगा
कि लौटकर आ जाऊं फिर यहीं
इसी धरती पर
नए सिरे से रचने के लिए
मोह और तृष्णाओं के नए-नए बंधन !


ध्रुव गुप्त