वाकई हम लड़ भी रहे हैं ?


जनता कर्फ्यू' में ताली-थाली का आइडिया इटली से लिया और 'कोरोना महोत्सव' के लिए दीपदान के साथ मोबाइल फलेश का आइडिया ब्राजील की पूर्ववर्ती घटना से । ये दोनों प्रयोग मोदी जी ने हीरोइज्म के चलते बहुत प्रीमैच्योर किये जिसका इस्तेमाल इस देश में अंधविश्वासों और अवैज्ञानिकता को बढाने के लिए उन लोगों ने किया जो सामान्यतः मोदी भक्ति में भी डूबे हुए हैं । खैर उस शोर में सरकार ने कोरोना की गंभीरता को हवा में उड़ाने का ही काम नहीं किया बल्कि अपनी नाकामियों पर पर्दा भी डाला । हर रोज देश में कोरोना के बढ़ने के आंकड़े सामने आ रहे हैं जबकि जांच अभी सिर्फ उन हजारों लोगों की हो सकी है जिनमें लक्षण सामने आए हैं । हर तरफ से डॉक्टर्स और नर्सों की चीत्कार गूंज रही है कि उन्हें ठीक से काम करने के लिए सुरक्षा किट नहीं हैं । हर ओर अस्पताल और क्लिनिक ठप पड़े हैं जहां ओपीडी बन्द हैं । किसी बीमारी का कोई इलाज नहीं हो रहा है । ज्यादातर प्राइवेट डॉक्टर्स ने अपने आप को जनता से दूर कर लिया है । लॉक डाउन के 21 दिन पूरे होते होते जनता का बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से टूट चुका है । राहत पैकेज की कुल रकम सुनकर बड़ी लगती है लेकिन किसी मजदूर के परिवार को महीने का हजार रुपया या विधवा को 500 रु की माहवार पेंशन का मतलब ऊंट के मुहँ में जीरा भर है । सोशल डिस्टेंसिंग और साफ सफाई के उपदेशों के साथ जनता को भूख और बीमारी से मरने को छोड़ दिया गया है । लॉक डाउन को कर्फ्यू बताकर पुलिस उत्पीड़न के भी खूब मौके दे दिए गए हैं और वह भी तब जबकि अदालतों के पट बन्द हैं , विपक्ष की राजनीति लकवाग्रस्त है , मीडिया भक्तिरस में डूबा है और भक्तगण घृणा के विस्तार में लगे हैं । एक अविवेकी निकम्मी और अपव्ययी सरकार ने जैसे सिर्फ डंडे से कोरोना मारने का संकल्प ले रखा हो भले ही इसके लिए देश की अर्थव्यवस्था , सामाजिक संवेदनाएं, लोकतंत्र और सद्भाव की बलि क्यों न चढ़ जाए । यह वीभत्स दृश्य है । यह सोचने समझने का समय है कि क्या हम वाकई एक राष्ट्र के रूप में  कोरोना से लड़ भी रहे हैं ?


मधुबन दत्त चतुर्वेदी