फणीश्वर नाथ रेणु

रेणु-स्मृति


11 अप्रैल : फणीश्वर नाथ रेणु की पुण्य-तिथि ।‌ सन 1977 में आज ही के दिन पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पी.एम.सी.एच) में उनका निधन हुआ था। 'मैला आँचल' का प्रशांत यहीं का छात्र था। इसलिए पीएमसीएच से रेणु का भावनात्मक लगाव था, जो अंततः जानलेवा साबित हुआ।
        अपने गांव औराही-हिंगना और शहर पटना से बेहद प्रेम था उन्हें। कहीं तीसरी जगह जम कर वह रह ही नहीं सकते थे। जब वह गांव में होते थे तब एक किसान की पूरी सजगता और जिम्मेदारी लिए हुए। खेत, बगीचा, खलिहान की देखरेख और व्यवस्था में दूसरे किसानों से कहीं आगे ही होते थे। पर यदि लिखने का सिलसिला शुरू होता तो दिन में भी मच्छरदानी लगी रहती, कहीं गर्मी का महीना हुआ तो कोका-कोला की बोतलों से भरी बाल्टी कुएं में पड़ी रहती। सन ६८ की बीमारी के बाद पीने के नाम पर कोका-कोला, काफी और कैप्स्टन ये ही तीन चीजें थीं, जिनसे वह अंत तक जुड़े रहे।
                 पटना में रेणुजी के होने का मतलब काफी हाउस में होना होता था। काफी हाउस का रेणु-कॉर्नर जाड़ा-गर्मी-बरसात बराबर आबाद रहता। इनके अनुपस्थित होने का अर्थ था - पटना से बाहर होना या बीमार होना । वर्षों से एक निश्चित रूटीन थी, जिस पर मौसम का कोई असर नहीं था। हम दोनों के बीच एक अलिखित समझौता था। मैं नियमपूर्वक छह बजते-बजते उनके यहां पहुंचता। कभी वह बाल काढ़ते हुए मिलते और कभी तैयार होकर प्रतीक्षा करते हुए। फिर हम लोग काफी हाउस के लिए निकलते। किंतु फ्लैट से बाहर आते ही दो-तीन कुत्ते अपनी सन्ततियों सहित उन्हें घेर लेते। ये किसी के पालतू नहीं, फालतू कुत्ते थे, जो ठीक समय पर राह रोके खड़े रहते। रेणुजी चाय की दुकानों से बिस्कुट खरीद कर उन्हें खिलाते और तब कहीं आगे बढ़ते। गोलंबर के पास जा कर रिक्शा लेते जो रात में घर लौटने तक साथ रहता। पड़ाव के सभी रिक्शे वाले उनके परिचित, प्रेमी और भक्त थे, जिनके सुख-दुख के बारे में हमेशा पूछते रहते।
‌             काफी हाउस से निकलने के बाद के कई पड़ाव थे। डी. लाल की दुकान में सिगरेट, साबुन, बिस्कुट या अगरबत्ती (सुगंध श्रृंगार) कुछ ना कुछ खरीद कर आगे बढ़ते पिंटू होटल, जेल के ठीक सामने। वहां से रसगुल्ला और संदेश लेकर गांधी मैदान होते हुए हथुआ मार्केट पहुंचते। विश्वनाथ के यहां कोका-कोला पीते और पान खाते। फिर राजेंद्र-नगर चौराहे पर कृष्णा के यहां से अखबार और मैगजीन लेकर कोई नौ-साढे़ नौ बजे तक घर लौटते। लतिकाजी प्रतीक्षा करती रहतीं। दरवाजे पर हल्की दस्तक सुनते ही पूछतीं - के ? और उत्तर में जवाब मिलता - 'आमरा' ।   यही लगभग रोज का क्रम था, एकाध व्यतिक्रम को छोड़ कर।
          रेणुजी को चायनीज खाना पसंद था और इसके लिए हम लोग कभी-कभी 'चुंग-हुआ' में जाते थे - काफी हाउस से उठने के बाद। उस दिन घर लौटते-लौटते साढ़े दस-ग्यारह हो जाते थे और तब लतिकाजी के सामने मुझे भी सफाई देनी पड़ती थी।  जिस दिन काफी हाउस बंद रहता, उस दिन हम लोग 'राजस्थान' में बैठते थे, लेकिन काफी के लिए नहीं, चीज-पकौड़ा और चाय के लिए। रेणुजी का कहना था कि काफी तो फिर काफी हाउस में ही पी जा सकती है। बड़े और साफ-सुथरे होटलों में बैठना उनकी हाबी थी। पटना में 'फाइव स्टार' होटल के निर्माण से वह काफी प्रसन्न थे और उत्सुकता से इसके आरंभ होने की प्रतीक्षा करते थे। उनके व्यक्तित्व में गांव के खलिहान और फाइव-स्टार होटल की आश्चर्यजनक संगति मिलती है। 
               पिछले साल जब वह गांव गए - धान कटवाने तब कटनी के बाद भी काफी दिन रह गए - कोई आठ-नौ महीने। इस बीच उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा जिसमें कुछ पारिवारिक समस्याओं पर अपने एक कुटुंब के मनमुटाव की चर्चा की। पर ऐसी दुश्चिन्ताओं ने उन्हें कभी कटु नहीं होने दिया। वह हमेशा मुस्कराते रहे और जब दुर्गा पूजा के समय पटना आए तब काफी स्वस्थ-प्रसन्न थे। फिर नवंबर में कुछ जरूरी काम से गांव गए और जब १ दिसंबर को लौटे तब गंभीर रूप से बीमार हो कर ही आए और सीधे पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में दाखिल हुए। इस अस्पताल के प्रति उनके मन में अत्यंत उच्च-धारणा और प्रशंसा-भाव था। यहां के चिकित्सकों की तारीफ करते वह नहीं थकते थे। इसी अस्पताल में उन्हें कई बार जीवन-दान मिला है, यह विश्वास भी कहीं गहराई में जमा हुआ था। और फिर उनका कथा-नायक 'मैला-आंचल' का प्रशांत भी इसी मेडिकल कॉलेज का विद्यार्थी था। यह घोर मोह-बंध ही उन्हें जकड़े हुए था। इसलिए जब जे.पी. उनसे मिलने अस्पताल आए और बातचीत में ऑपरेशन के लिए जसलोक जाने का सुझाव दिया तब वह मुस्करा कर टाल गए। जे.पी. के साथ उनकी वार्ता का वह ऐतिहासिक क्षण था। राजेंद्र सर्जिकल ब्लाक में के.एल. वार्ड का २१ नं. बेड : लोकनायक और लोक लेखक का मिलन-स्थल। जे.पी. को देखते ही रेणु भर आए और अपने बीमार सेनानी को देखकर सेनापति भी भरा हुआ था। एक-दो क्षण की चुप्पी फिर बातों का सिलसिला। जे.पी. ने कहा - 'आपको तो इस जनरल वार्ड में असुविधा होगी, क्यों नहीं काटेज . . . ' और वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि रेणु ने बहुत नम्रतापूर्वक निवेदन किया - 'मैं तो साधारण आदमी का लेखक हूं और साधारण लोगों की तरह यहां रहना मुझे अच्छा लगता है। सच पूछिए तो जो अस्पताल की सीढ़ी तक पहुंच पाता है, वह भाग्यशाली होता है। हिंदुस्तान में अधिकांश लोग तो अस्पताल का मुंह ही नहीं देख पाते, इलाज की बात तो अलग रही।' जे.पी. ने बीमारी के बारे में डॉक्टर शाही से पूछताछ की। पर रेणु फिर शुरू हो गए। 'सन ६८ के दिसंबर में बीमार होकर यहीं आया और जनवरी भर रहा। उसी समय व्याधि (पेप्टिक) और उपाधि (पद्मश्री) दोनों मिलीं। उपाधि तो मैंने वापस कर दी, अब व्याधि रह गई है।' और यह सुनकर मुस्कुराते हुए जे.पी. ने कहा - वह भी वापस हो जाएगी। रेणु बहुत प्रसन्न हुए और कहा - अभी बहुत कुछ लिखना है, काफी काम बाकी है। इस संकल्प को जैसे मन ही मन अपने सेनापति के सामने उन्होंने कई बार दोहराया। 
                लोकसभा के चुनाव की घोषणा हुई थी और रेणु अस्पताल में पड़े कुछ करने के लिए छटपटा रहे थे। थोड़ा अच्छा होते ही डॉक्टर की अनुमति लेकर १३ फरवरी को घर लौट आए। पर्चा-पोस्टर लिखना, लोगों से मिलना-जुलना शुरू किया। किंतु फिर अश्वस्थ हो गए। पेप्टिक का दर्द भयंकर हो गया और २५ फरवरी को पुनः के.एल. वार्ड के उसी २१ नं बेड पर दाखिल हो गए। इस बीच चुनाव से पहले ही अज्ञेयजी कलकत्ता होते हुए रेणुजी से मिलने अस्पताल आए थे और एक बयान पर उनका हस्ताक्षर भी लिया, जिसमें आपातकाल का विरोध करते हुए लोकतंत्र की स्थापना की हिमायत की गई थी। एक-डेढ़ घंटे तक विभिन्न मुद्दों पर दोनों की बातें होती रहीं। अज्ञेयजी को विदा करके हवाई अड्डे से जब मैं अस्पताल आया तब रेणु जी प्रसन्न मुद्रा में बैठे थे। भाईजी (अज्ञेयजी को इसी संबोधन से याद करते थे) के साथ हुए वार्तालाप को उनके जाने के बाद फिर दुहराते रहे। कुछ संकोच और प्रसन्नता के बीच उन्होंने कहा - देखिए न, मैं भाईजी से इलाजी का समाचार पूछना चाहता था। पर सीधे कुछ पूछ नहीं पाया, पता नहीं वह क्या सोचते। पिछली बार गर्मियों में जब मैं दिल्ली गया था, तब इलाजी के हाथ का बर्फ मिला ठंडा तरबूज खाने को मिला था। सो, मैंने भाईजी से इतना ही कहा कि अच्छा होने के बाद मैं इस बार फिर दिल्ली आ रहा हूं। तरबूज का मौसम रहेगा न ? और भाईजी मेरा मन्तव्य समझ कर मुस्कुरा रहे थे। तो इस तरह प्रकारांतर से मैंने इलाजी का भी समाचार पूछ ही लिया।' मैं रेणुजी के ग्रामीण संकोच, भोलेपन और हार्दिकता के बारे में देर तक सोचता रहा। 
              लेकिन दिल्ली जाने का अवसर नहीं आया। वह तो 11 अप्रैल को अनंत की यात्रा पर निकल गये। उनकी स्मृति को नमन !


Ram Bachan Roy