मीडिया में और हमारे समाज में 'भूख' की इतनी चर्चा हमने इसके पहले कभी नहीं सुनी

जब तक भूखा इंसान रहेगा
धरती पर तूफान रहेगा


एक महामारी के बहाने हमारे समाज का एक ऐसा पक्ष सामने आया है, जिसे बड़े जतन से ढंक दिया गया था. वह है गरीबी और भूख. 


नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक, हमारी सरकारें देश में गरीबी रेखा और भुखमरी का आकलन करती थीं. इसके आंकड़े जारी करती थीं. हर पांच साल का लक्ष्य तय होता था और गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के प्रयास होते थे. 


मुझे याद है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में गरीबी रेखा तय करने संबंधी तीन आयोगों ने रिपोर्ट दी थी. उनकी समीक्षा हुई, बड़े बड़े दिग्गज पत्रकारों ने लेख लिखकर सरकार की मजम्मत की थी. 


फिर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और आंकड़ों का खेल शुरू किया गया. उन्होंने किसान आत्महत्या, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, जीडीपी आदि के साथ गरीबी का भी आंकड़ा छुपाया. या शायद इस दिशा में कोई काम ही नहीं होने दिया. पिछले छह साल में इसकी कोई चर्चा नहीं हुई कि भारत में कितनी फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है. पिछले छह सालों से विकास का एक रंगीन गुब्बारा फुलाया गया था, जिसे एक वायरस ने फोड़ दिया और हमारी गरीबी सड़कों पर, राष्ट्रीय राजमार्गों पर नुमाया हो उठी. लॉकडाउन के बाद से ही इंसानी भूख की कहानियां आनी शुरू हो गई हैं.


मीडिया में और हमारे समाज में 'भूख' की इतनी चर्चा हमने इसके पहले कभी नहीं सुनी. शायद कई दशकों बाद अचानक हर तरफ भूख-भूख का शोर उठा है. पुराने लोग, जिन्होंने भारत की गरीबी और अकाल के दिन  देखे हैं, उनके लिए शायद यह नया न हो. 


लेकिन इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि अगर किसी समस्या को ठीक करने की जगह उसे ढंका जाएगा तो और खराब रूप में हमारे सामने आएगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि अब आगे से सरकारें गरीबी और भुखमरी को दूर करने के लिए ठोस प्रयास करेंगी. 


(फोटो साभार: दि प्रिंट. रैन बसेरे में खाने का इंतजार कर रहे लोग.)


@ Krishna Kant