महामारी में बदलते मनोविज्ञान के बारे में।

फ्रांसीसी लेखक अल्बेयर कामू ने सन1947 में प्लेग महामारी को केंद्र में रखकर "प्लेग" नामक एक कालजयी उपन्यास लिखा था। आज हम कोरोना महामारी की चपेट में हैं। स्थितियां में क्या कोई परिवर्तन आया है?कुछ चुने हुए अंश,
* स्थानीय अखबार, जो चूहों के बारे में इतनी बड़ी बड़ी सुर्खियां देकर खबरें छापते थे , अब बिल्कुल खामोश हो गए थे,क्योंकि चूहे सड़कों पर मरते हैं और आदमी अपने घरों में। और अखबार सिर्फ सड़कों में ही रुचि रखते हैं।
* सभी जानते हैं कि दुनिया में बार बार महामारियां फैलती रहती हैं, लेकिन जब नीले आसमान को फाड़कर कोई महामारी हमारे ही सिर पर आ टूटती है तब, न जाने क्यों, हमें उस पर विश्वास करने में कठिनाई होती है। इतिहास में जितने बार युद्ध लड़े गए हैं उतनी ही बार प्लेग भी फैली है।फिर भी प्लेग हो या युद्ध बिना चेतावनी दिए आ पकड़ते हैं।
*और उसे याद आता है कि प्लेग की जिन तीस महामारियों का इतिहास का पता है ,उन्होंने करीब दस करोड़ लोगों की जान ली है।लेकिन दस करोड़ मौतें क्या होती हैं?जो युद्ध लड़ आता है,वह कुछ दिन बाद भूल जाता है कि मुर्दा आदमी क्या होता है।और चूंकि मुर्दा व्यक्ति वास्तविक नहीं होता जब तक कि उसको प्रत्यक्ष मरते हुए न देखा गया हो, इसलिए इतिहास में दस करोड़ व्यक्तियों के शवों की घोषणा मनुष्य की कल्पना में  धुएं के एक कश से ज्यादा वास्तविकता नहीं रखती।
*और जाहिर है कि छूत कभी सर्वग्राही भी होती, नहीं तो बीमारों की संख्या में क्रम गति से इतनी तेजी से बढ़ती होने लगे कि मरनेवालों की तादाद आसमान को छूने लगेगी।
*'आदेश!' उसने नफरत से कहा, " जब कि जरूरत आदेशों की नहीं कल्पना की है।"
*इस भयानक महामारी का सबसे पहला असर यह हुआ  कि हमारे शहर के लोग इस तरह से आचरण करने को मजबूर हो गए जैसे उनमें व्यक्तिगत भावनाएं थी ही नहीं।
      आज इतना ही। कल कुछ और बातें पढेंगे महामारी में बदलते मनोविज्ञान के बारे में।


चिन्मय मिश्र