कल तक जो कहते थे मरने की फुर्सत नहीं उन्हें...  आज ख़ुद मरने के डर से छुपे नज़र आ रहे हमें... 

एक मुद्दत से आरज़ू थी, मिलेगी फुरसत कभी हमें... 
फ़ुरसत तो मिली गई, शर्त ये कि कोई ना मिले हमें... 


कल तक जो कहते थे मरने की फुर्सत नहीं उन्हें... 
आज ख़ुद मरने के डर से छुपे नज़र आ रहे हमें... 


घर गुलज़ार, सूने हैँ शहर, हर हस्ती कैद हो गई... 
ज़िन्दगी महँगी, दौलत सस्ती नजर आ रही हमें...


एक एक दमड़ी जोड़ कर बनाया था आशियाना... 
वही ख्वाबों का घर अब क़ैदखाना दिख रहा हमें... 


दौलत की दौड़ में हम अल्लाह से दूर जो हो गए... 
ख़ुद ही हरकतों का ये अज़ाब जो दिख रहा हमें... 
~हुमा