गढ़वाली सीज फायर" !!! 

साभार Manish Singh


90 साल पहले, यही गर्मियां, यही अप्रैल यही 23 तारीख 


जगह किस्साख्वानी बाजार, पेशावर। कोतवाली - और इस कोतवाली के बाहर हजारों पठान जमा हैं। 1930 में गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन जोरों ओर है। यहां सीमांत गांधी याने बाचा खान ने आव्हान किया है। एक तरफ हजारों पठान हैं, और दूसरी ओर उन्हें कुचलने के लिए तैनात गढ़वाल रायफल्स की टुकड़ी


पेशावर का कप्तान आता है, पठानों को तितर बितर होने का आदेश देता है। मगर पठान और जोर से नारे लगाते हैं। सरकार के खिलाफ विरोध के स्वर और तेज होते हैं।  कप्तान  गढ़वाल रायफल्स की टुकड़ी को हुक्म देता है- "यूनिट शूट दैम  3 राउन्ड फायर",


ग्यारह साल बाद एक और जलियांवाला बाग बनने वाला है। इस बार पेशावर में..  टुकड़ी हथियार साधती है, निशाना लेती है। मगर फिर एक कड़कती आवाज आती है -  


"गढ़वाली सीज फायर" !!! 


ये टुकड़ी के नायक हवलदार चन्द्रसिंह भंडारी है। बंदूकें थम जाती है। गढ़वाल रायफल की यूनिट 2/18 अब , खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में चल रहे सविनय अवज्ञा आन्दोलन का हिस्सा हो चुकी है। पेशावर की सड़कों पर न बह सका खून, गढ़वाली और पठानों की दोस्ती की इबारत लिख जाता है। 


भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में तीसरा सैनिक बिद्रोह है। इसकी कीमत चुकानी होगी।  यूनिट के नायक हवलदार चन्द्रसिंह भण्डारी को देर शाम गिरफ्तार कर लिया जाता है ।  वो एबटाबाद जेल में कैद होते है । यूनिट की धरपकड जारी रहती है। अब बारी पठानों की है। वे गढवाली सैनिकों को अपने अपने घरों में छुपा लेते है और बाहर खुद खड़े हो जाते है जान देने को । विद्रोह की खबर पूरे भारत में फैलती है और गांधी का सविनय अवज्ञा आन्दोलन परवान चढता है। जवाहरलाल नेहरू 12 दिसम्बर 1930 को पूरे देश में "गढ़वाल दिवस" मनाने का आह्वान करते हैं । पूरे देश में नारा गूंजता है गढ़वाली जिन्दाबाद । 
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हवलदार चन्द्र सिंह भण्डारी को अब  वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम से जाने जाते हैं। इस असल वीर ने वीरता के तमगे को बदनाम न किया। माफी नही मांगी,  और 14 साल की सश्रम सजा को बेहिचक गले लगाया। एबटाबाद सहित कई जेलों में  जीवन कटता है।  रिहाई पर वे गांधी के वर्धा आश्रम चले आते है। कुछ समय काट कर आनन्द भवन  इलाहाबाद को निवास बना लेते है । 


भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू होता है फिर 3 साल के लिये जेल डाल दिये जाते है । भारत स्वतन्त्र होता है, उनका कुर्क घर बहाल होता है। वे अपनी विचारधारा के साथ जीवन जीते है । 1975 में  उत्तर प्रदेश सरकार भारत सरकार की अनुशंसा पर उन्हें हल्दूखाता में दस एकड़ जमीन 90 साल की लीज पर देती है। भारत सरकार डाक टिकट जारी करती है । 1979 में वे देह छोड़ देते हैं। 
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देश और प्रदेश स्वतन्त्रता की छांव में  प्रगति करते हैं । 2018 में प्रदेश का वन विभाग लीज की रकम न पटाने और रिन्युअल न होने के कारण उनके परिवार को अतिक्रमणकारी सिद्ध कर देता है। घर और खेत को खाली करने का आदेश होते है। देहरी पर रोज डंडा लिये सरकार आ खड़ी होती है। यह राष्ट्रवाद के उफान का दौर है।


अमर उजाला की 2019 की पुरानी खबर कहती है कि वीर चंद्र सिंह गढ़वाली पर्यटन योजना में घोटाले के लिए मंत्री सहित 12 को कोर्ट ने नोटिस जारी किया। यही राष्ट्रवाद है। 


सोचता हूँ कि जो 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में हुआ, वह क्या था? 


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Adwet Bahuguna की सुनहरी कलम से