दुनिया के मूर्खों, एक हों !

पहली अप्रिल को मनाया जाने वाला 'मूर्ख दिवस' वस्तुतः हंसी-मज़ाक का नहीं, मनुष्यता की अबतक की यात्रा पर थोड़ा ठहर कर सोचने का अवसर है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर तमाम दिवसों में 'मूर्ख दिवस' सबसे मासूम, सबसे क्रांतिकारी और पूर्णता की अवधारणा के सबसे निकट लगता है। जिसने भी इस दिवस की परिकल्पना की थी, उसे ज़रूर अपनी दुनिया के अतीत, वर्तमान और भविष्य की की समझ रही होगी। क्या हमें भी यह सोचने की ज़रुरत नहीं कि सदियों के अर्जित ज्ञान, बुद्धि, होशियारी, तर्कशक्ति और समझ हमें कहां से कहां ले आई है ? एक ऐसे समय में जहां हंसी, ख़ुशी, सरलता, प्रेम, करुणा, भाईचारा, मासूमियत, मानवीयता सब गायब हैं। हमारी ज़रुरत से ज्यादा समझदारी ने हमें उस मुकाम तक पहुंचा दिया है जहां न हम सुरक्षित हैं, न हमारी पृथ्वी, न हमारा पर्यावरण, न हमारे बच्चे, न हमारा भविष्य। सारे मानवीय, सामाजिक और प्राकृतिक मूल्यों को ध्वस्त कर डालने की गलाकाट प्रतियोगिता चल रही है हर तरफ। क्या आपको भी नहीं लगता कि हमें एक बार फिर मासूम मूर्खताओं के उसी शुरूआती दौर में लौट चलना चाहिए ? मानवता के उसी सरल, सहज, निश्छल दौर को हमारे पूर्वजों ने सतयुग का नाम दिया था शायद।


तो दुनिया भर के मूर्खों, एक हों ! अपनी दुनिया को इतने समझदारों से बचाने के लिए चलो मूर्खताओं के एक नए दौर का आरंभ करते हैं !


by - Dhruv Gupt