दिल्ली, सूरत और अब मुंबई! 

दिल्ली, सूरत और अब मुंबई! 


ये मजदूर कितने बुरे हैं
ये मजदूर कितने गंदे हैं
ये मजदूर कितने गैरजिम्मेदार हैं
अपने-अपने घरों से
बेवजह बाहर निकल रहे हैं 
पता नहीं किस घर लौटना चाहते हैं
पता नहीं इनके पास कितने घर हैं
अरे भाई, घर में बंद-बंद बोर हो रहे थे तो टीवी खोलकर रामायण-महाभारत देखते
या न्यूज ही देखते
या फिर बेडरूम से निकलकर
बालकनी चले जाते
बालकनी नहीं हो 
तो छत पे चले जाते
पौधों में पानी डालते
फूलों से खेलते
या फिर अपने पालतू कुत्ते या बिल्ली से खेलते हुए दिल बहला लेते
पर ये बेवजह बेवक्त घर से निकल पड़े हैं 
वो भी इत्ती तादात में
कहते हैं
इनके पास खाने को कुछ नहीं बचा है
ये लौटना चाहते हैं अपने घर 
जहां से यहां आये हैं
लौटना ही था तो फिर आए क्यों
इन्हें बेवजह भूख लगती है
वो भी दोनों टाइम खाना मांगते हैं
कितने उद्दंड हैं 
बोल रहे हैं कोठी-बंगला और सोसायटी वाले तीन टाइम खाते हैं 
हमे दो टाइम की रोटी तो दो
पता नहीं, अपनी कैसी सेफ्टी चाहते हैं
कहते हैं, उनके पास रहने को घर कहां है
बांद्रा हो या मुंब्रा, धारावी हो कुर्ला
झोपड़पट्टियों में क्या नहीं होता
टीवी फ्रिज सब कुछ तो होता है
और क्या चाहिए इन्हें
आप ही बताओ 
बेचारी सरकार इतने संकट में 
किसको-किसको अनाज और रुपया देगी
सरकार हम सबके लिए कितना कर रही है
लाकडाऊन हम सबके लिए ही तो है
क्या इत्ती सी बात नहीं समझते
ये मजदूर
अरे भाई
थोड़ा कम खा लो
कुछ गम खा लो 
कुछ दिन नहीं भी खाओगे 
तो क्या हो जायेगा
वैसे ही तुम लोग काफी तंदुरुस्त होते हो
हमारी तरह तुम लोगों को तो डायबिटीज और ब्लड प्रेशर भी नहीं होते
कितने मस्त रहते हो तुम लोग
कुछ ही दिनों की तो बात है
सह लो भाई
ऐसी भीड़-भाड़ करके
अपनी जान क्यों डालते हो जोखिम में
तुम लोग मरोगे तो हमारे काम कौन करेगा
देश में जब फिर से फैक्ट्रियां चालू होंगी उनमें मशीनें कौन चलायेगा
ढुलाई कौन करेगा 
गाड़ी, टृक और रिक्शे कौन चलायेगा
कपड़ा कौन बनायेगा
तेल-घी, दवा-दारू, साबुन-क्रीम, खिलौने,   टेबल-कुर्सी, सोफ़ा, गद्दा, फ्लैट, कोठी, सड़कें-फ्लाईओवर,होटल, रेल के डिब्बे, मेट्रो की लाइनें, कारें, वाटर-प्यूरीफायर, वाशिंग मशीन, बंदूकें-पिस्तौलें, हीटर, एसी, पंखे और जूते-चप्पल और जितनी भी चीजें आंख से दिखाई देती हैं
वो सब कौन बनायेगा
इसलिए कोरोनावायरस के संक्रमण का ख़तरा समझो मजदूर भाई
अपनी जान जोख़िम में क्यों डालते हो
अपनी ही नहीं
दूसरों की भी सोचो
औरों को मुसीबत में क्यों डाल रहे हो
तुम लोग बिल्कुल 
समझने को तैयार नहीं लगते
इत्ता-इत्ता घास-भूसा जैसा 
खाते रहते हो तुम लोग 
इसीलिए तुम लोगों के दिमागों में 
भूसा भर गया है
तुम मजदूर सचमुच बहुत गंदे हो
कितने बुरे हो
कितने गैर जिम्मेदार हो!


उर्मिलेश


वरिष्ठ पत्रकार