लाॅकडाउन

उन्होंने हमारे दरवाजे बंद कर दिए 


गलियां सील कर दी 
और शहर को छावनी बना डाला 
वे लड़ रहे थे किसी अदृश्य हमलावर से 
और कैद कर रहे थे अपनी ही प्रजा को 
यह कुछ नया नहीं है 
ऐसी ही होती है दुुुश्मनी ं हुक्मरानों की
लड़तें हैं किसी से 
और मारते हैं किसी और को !


लेकिन मैं कब रहा कैद?
दरवाजे तो बंद ही रहे 
गलियों में भी पहरे बने रहे 
फिर भी मैं सड़कों पर रहा 
उनके साथ चलता रहा 
जो भागते रहे हें सदियों से 
पैरों में छाले लेकर 
गठरी में भूख-प्यास बांध कर 
कंधों पर ख्चाब डाल कर 
छोटे-छोटे ख्वाब- 
हंसते-खिलखिलाते बच्चे, 
लहलहाती फसलें, 
आंगन में फुदकती गौंरैया 
और पास आने से खुश होती स्त्री 


मैं तो लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे 
उन असंख्य नागरिकों की कतार में शामिल रहा 
जो खड़े थे पहचान-पत्र लिए 
राशन की दुकानों के सामने 
और खा रहे थे पुलिस के डंडे 


मेरे पास कहां वक्त था 
योग से मन-शरीर को शुद्ध करने का ?
मैं तो कैद तोड़ कर भाग आए 
उन बच्चों के साथ दौंड़ रहा था 
जो बगीचों में तितलियां पकड़ रहे थे 
लाॅकडाउन था, 
दरवाजे भी बंद रहे 
बाहर भय था अदृश्य हमलावर का
लेकिन मैं तो चला आाया 
मीलों दूर, नदी तक 
और तुम्हारे साथ नहाता रहा 
नीले आकाश सी तुम्हारी आंखों में उड़ता हुआ
अनिल सिन्हा 
11 अप्रैल, 2020