वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता कार्लमार्क्स

 स्मृति दिवस 14 मार्च


स्पष्ट है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विचारों की जड़ अथवा यांत्रिक व्यवस्था नहीं है. यह तर्क और नए शोधों, वैचारिक संघर्ष के आधार पर सतत परिवर्तनशील होता है। स्वीकृत विचारों के अनुसार अभी तक केवल जड़ वस्तुएं ही यांत्रिक नियमों से बंधी होती हैं, न कि जीवित प्राणी. किंतु वे सभी अनिवार्यरूप से कार्य–कारण नियम का पालन करते हैं. इसका अभिप्राय यह है कि कार्य–कारण के जो नियम जड़ पदार्थों एवं जानवरों आदि पर लागू किए जाते रहे हैं, मनुष्य भी उनसे परे नहीं है। द्वंद्ववाद मानवीय मेधा को गरिमामंडित देता है. इसलिए वहां तर्क को ऊंचा माना जाता है. द्वंद्ववाद के समर्थक भौतिक विज्ञानी बिना शर्त परमाणुवाद का समर्थन तक नहीं करते, बल्कि उससे पहले वे उसको अपने तर्क और परीक्षणों की कसौटी पर कसते हैं।



मार्क्स के अनुसार विकास एकल न होकर अनेक विकासोन्मुखी क्रियाओं का परिणाम है, जो एक के बाद एक आकार ग्रहण करते रहते हैं. विकास का यह चक्र सतत गतिमान रहता है, जैसे परमाणु का अणु में बदलना, उसके बाद क्रमशः जीवित कोशिकाओं, पेड़–पौधों–लताओं, जीवित प्राणियों, मनुष्य, समाज आदि में ढलते जाना. मार्क्स के अनुसार विकास को आशावादी नजरिये से देखने की परंपरा समाज में रही है। मगर सबसे अंतिम सीमा सदैव सर्वाधिक जटिल होती है। प्रकारांतर में वह सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक शीलयुक्त भी होती है. स्मरणीय है कि द्वंद्ववाद के समर्थक अधिकांश भौतिकविज्ञानी डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से प्रेरित–प्रभावित थे. मार्क्स भी उससे अछूता नहीं था। इन विद्वानों का मानना था कि विकास का प्रत्येक चरण, उसके अनेक चरणों का समुच्चय होता है, वे सब साथ–साथ गतिमान रहते हैं. उसके कहने का आशय था कि विकास एकल ज्यामितीय न होकर बहुत–से आकृतियों का समुच्चय है. सृष्टि की अविरत विकासधारा में किसी वस्तु में छोटे–छोटे परिवर्तन बड़ा आकार ग्रहण करते जाते हैं, इससे तनावों–अंतःसंघर्षों की उत्पत्ति होती है, जो उस समय तक बढ़ते जाते हैं, जब तक कि नए तत्व पर्याप्त रूप में संतुलन का ध्वंस करने योग्य शक्तिशाली नहीं जाते, और वे उनके बीच सूत्रबद्धता के लिए जिम्मेदार कारकों, साम्यों को भंग नहीं कर देते। जब तक सुदीर्घ परिवर्तन–शृंखला उनमें नए लक्षण पैदा करने में समर्थ नहीं हो जाती. इस सिद्धांत को ‘विचार–प्रतिविचार–संविचार’ अथवा ‘सिद्धांत–प्रतिसिद्धांत–समसिद्धांत’ का त्रिकोण कहा जाता है। तदनुसार विपरीत शक्तियों के बीच संघर्ष और उनसे नई शक्तियों–परिणामों की उत्पत्ति ही इस सिद्धांत का आधार है।