बीस साल लंबा आइसोलेशन !

वायरसजन्य रोगों के कारण लोगों को आइसोलेशन में भेजे जाने के चर्चे इन दिनों आम है। इतिहास गवाह है कि प्रेमजन्य रोगों की वज़ह से लोगों के इससे भी लंबे आइसोलेशन में भेजा जाता रहा है। प्रेम के कारण सबसे लंबा आइसोलेशन झेलने वाली शख्सियतों में एक थी मुगल सम्राट औरंगजेब की बड़ी बेटी जेबुन्निसा। अपने चाचा दारा शिकोह से प्रभावित जेबुन्निसा ने बचपन से अपना ध्यान फारसी  और सूफ़ी साहित्य के अध्ययन में लगाया था। किशोरावस्था तक आते-आते अपनी भावनाओं को वह ग़ज़लों और रूबाइयों में ढालने लगी। पिता के कठोर अनुशासन की वज़ह से दरबार में अदबी महफ़िलों की गुंजाईश नही थी तो अपना परिचय छुपाकर वह मख्फी नाम से शहर में आयोजित होने वाले मुशायरों में शिरक़त करने लगी। रूमानी शायरी और सुरीली आवाज के कारण उसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। इन्हीं मुशायरों के दौरान युवा शायर अकील खां रज़ी से उसका परिचय हुआ जो बहुत जल्दी मुहब्बत में बदल गया। उन दोनों की मुशायरों से अलग भी व्यक्तिगत मुलाक़ातों की ख़बर जब औरंगज़ेब तक पहुंची तो उसे अपनी बेटी का रूमान बिल्कुल पसंद नहीं आया। मुगल सल्तनत वैसे भी अपनी बेटियों के प्रति ज्यादा रूढ़िवादी और अनुदार रहा था। औरंगजेब ने जेबुन्निसा को दिल्ली के सलीम गढ़ किले में कैद कर दिया।


अविवाहित जेबुन्निसा के जीवन के आखिरी बीस साल निर्जन सलीमगढ़ किले के एकांत में गुज़रे। इस मुश्किल दौर में शायरी ने उसे सहारा दिया। प्रेम की व्यथा और अंतहीन प्रतीक्षा उसकी शायरी का मूल स्वर है। उस घोर रूढ़िवादी दौर में भी जेबुन्निसा ने बेख़ौफ़ होकर प्रेम की आंतरिक अनुभूतियों को स्वर दिए। अपने जीवन के आखिरी दौर में उसने 'दीवान-ए-मख्फी' की पांडुलिपि तैयार की जिसमें उसकी पांच हज़ार से ज्यादा ग़ज़लें, शेर और रूबाईयां संकलित थीं। उसकी मौत के बाद फारसी के किसी विद्वान ने उसके दीवान की पांडुलिपि पेरिस और लंदन की नेशनल लाइब्रेरियों में पहुंचा दिया जहां वे आज भी सुरक्षित हैं। साहित्य के जानकारों की नज़र पड़ने के बाद उसके दीवान के अनुवाद अंग्रेजी,फ्रेंच,अरबी सहित कई-कई भाषाओं में हुए। दुर्भाग्य से उसके अपने देश की किसी भाषा में उसके दीवान के प्रकाशन और मूल्यांकन का काम अभी बाकी है। आज आपके लिए प्रस्तुत है प्रेम के कारण दुनिया का सबसे लंबा आइसोलेशन झेलने वाली जेबुन्निसा की एक कविता का मेरे द्वारा अंग्रेजी से किया गया अनुवाद :


अरे ओ मख्फी
बहुत लंबे हैं अभी
तेरे निर्वासन के दिन
और शायद उतनी ही लंबी है
तेरी अधूरी ख़्वाहिशों की फेहरिस्त
अभी कुछ और लंबा होगा
तुम्हारा इंतज़ार


शायद तुम रास्ता देख रही हो
कि उम्र के किसी मोड़ पर
किसी दिन
लौट सकोगी अपने घर
लेकिन, बदनसीब
घर कहां बच रहा है तुम्हारे पास
गुज़रे हुए इतने सालों में
ढह चुकी होंगी उसकी दीवारें
धूल उड़ रही होगी अभी
उसके दरवाजों
और खिड़कियों पर


अगर इंसाफ़ के दिन ख़ुदा कहे
कि मैं तुम्हें हर्ज़ाना दूंगा
उन तमाम व्यथाओं का
जो जीवन भर तुमने सहे
तो क्या हर्ज़ाना दे सकेगा वह मुझे
जन्नत के तमाम सुखों के बाद भी
वह एक शख्स तो उधार ही रह जाएगा
ख़ुदा पर तुम्हारा !


ध्रुव गुप्त


साहित्यकार सेवा निवृत्त आई पी एस अधिकारी है