वृंदावन लाल वर्मा हिन्दी उपन्यासों के वाल्टर स्कॉट


आज से 50 वर्ष पहले आज ही के दिन हिन्दी उपन्यासों के वाल्टर स्कॉट कहे जाने वाले झाँसी ही नहीं वरन सम्पूर्ण देश की शान वृंदावनलाल वर्मा जी हमसे विदा हो गए थे। अत्यन्त विषम परिस्थितियों से जूझकर अत्यल्प वय में अपने लेखन की शुरूआत करने वाले वर्मा जी ने अनेक अल्पज्ञात अल्पख्यात ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को अपनी कलम की पॉलिश से चमकाकर दुनिया में भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पक्ष को रखने का महती कार्य किया है।


वर्मा जी का जन्म झांसी जिले के मऊरानीपुर कसबे के कायस्थ परिवार में 9 जनवरी सन 1889 को हुआ था। मात्र बीस साल की अल्पायु में सन 1909 में उन्होंने सेनापति ऊदल नाटक लिखा था जिसमे व्याप्त राष्ट्रवादी तेवरों से बौखलाकर अँगरेज़ सरकार ने इस नाटक पर पाबंदी लगा दी थी। इससे एक साल पहले वे महात्मा बुद्ध का जीवन चरित लिख चुके थे। सर वाल्टर स्कॉट की प्रेरणा से उन्होंने ऐतिहासिक उपन्यासों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया। आज उनकी ख्याति के मुख्य आधार उनके द्वारा लिखे ऐतिहसिक उपन्यास हैं। गढ़कुंडार, विराटा की पद्मिनी, कचनार, झांसी की रानी, माधवजी सिंधिया, मुसहिबजू, भुवन विक्रम , अहिल्याबाई, टूटे कांटे, मृगनयनी आदि उनके सुप्रसिद्ध उपन्यास हैं। उनकी आत्मकथा अपनी कहानी भी सुविख्यात है।उन्होंने बुन्देली लोकगीतों का संकलन बुंदेलखंड के लोकगीत शीर्षक से किया।


हिन्दी साहित्य का यह प्रहरी सन 1969 में हमसे विदा हो गया। उनकी मृत्यु के 28 साल बाद 9 जनवरी सन 1997 को भारत सरकार ने उन पर एक डाक टिकट जारी किया।


उनकी पुण्य स्मृतियों को नमन।


द्वारा : पुनीत बिसारिया