बुधु भगत के नेतृत्व में हुए आदिवासी युद्ध का आंखों देखा हाल जानना है तो ‘माटी माटी अरकाटी’ उपन्यास जरूर पढ़िए.
"...नाश्ता करने के बाद जब हम तैयार हो रहे थे, हमने अचानक घोड़ों के लिए घास काटने वाले घसियारों की जोर-जोर चिल्लाने की आवाज सुनी. ‘कोल आ गए, कोल आ गए.’ मैंने सोचा, ‘मुझे और कई सिपाहियों को यह भ्रम हो गया कि कोल विद्रोहियों ने हम पर धावा बोल दिया है. मुझे तो ऐसा लगा कि बस अगले ही पल कोई कोल अपने हाथ में नंगी तलवार लिए मेरे टेंट में घुसेगा और ... पर यह वाकई में भ्रम था. असल में हमारे कैम्प से कोई कोस भर की दूरी पर घसियारों ने विद्रोहियों के एक दल को जाते देखा था. फिर क्या था. हममें से जो जिस हालत में था, मतलब बिना टोपी के, बिना जैकेट के, पूरी तेजी से उधर लपके. लगभग चार मील सरपट दौड़ने के बाद हमें लगभग 200 कोल तेजी से जंगल की ओर जाते दिखे. वे सब जितनी तेजी के साथ चल सकते थे, चले जा रहे थे. जमीन भी दलदली थी जिसमें घोड़ों का तेजी से बढ़ पाना नहीं हो रहा था. फिर भी हम 18-20 कोल आदिवासियों को मार पाने में सफल हुए.
लौटते हुए रास्ते में पड़ने वाले दो गांवों को हमने जला दिया और 60 और लोगों को भी मार डाला. इसके बाद हमारी टुकड़ी कैम्प लौट आई.
अगले दिन, यानी 9 फरवरी को हमारी टुकड़ी तीन दलों में बंटकर विद्रोहियों को सबक सिखाने के लिए गांव जलाने और लूटने निकली. कैप्टन विलकिन्सन का आदेश बहुत साफ था. मारो, जलाओ और लूट लो. गांवों को जलाना हमारे लिए एक मजेदार खेल था. गुड फन!"