बुरा मत मानियेगा, मैं यह दिल से लिख रहा हूँ।
● जब बाबरी गिराई गयी थी तब हैदराबाद में मेरे अभिभावकों ने कुछ रात मुझे एक हिन्दू पड़ोसी के घर में सुलाया था। उन्हें नेपाली सिक्योरिटी गार्ड ने बताया था कि जहां हम रहते हैं वहां की दूकान पर सबके नाम हैं और मेरे पहले नाम - फीरोज - की वजह से मुझे मुसलमान समझा जा सकता है।
● कुछ साल बाद मैं और मेरे बाबा कोलकता में, जहां वे रहते थे,उनके घर के मोहल्ले में हाथ ऊपर किये हुए सडकों पर थे। वहां साम्प्रदायिक दंगा हो चुका था, कर्फ्यू लगा हुआ था और हमें दिन में सिर्फ एक घंटे खरीदारी की इजाजत थी, मगर तभी जब हम अपने हाथ ऊपर करके जाएँ। मैं और बाबा इसी हालत में खरीदारी करने जाते थे और चावल, अंडे, प्याज। रोटी और नमक खरीद कर लाते थे।
● जब रास्ते में आर ए एफ (रैपिड एक्शन फ़ोर्स) की चौकी पड़ती थी तो मेरे बाबा कहते थे इनसे जय हिन्द बोलो। "ये अच्छे लोग हैं, हमारी हिफाजत करने आये हैं। "
● आज 26 साल बाद, अभी अभी मेरी माँ ने मुझे मेसेज किया है कि पर्याप्त मात्रा मैं दूध, अण्डे, चावल और आलू और नमक खरीद कर रख लूं। आर आर ए एफ सडकों पर वापस लौट आयी है। उनकी नीली वर्दी देखकर मुझे सुकून के साथ साथ ये सारी पुरानी यादे ताजा हो रही हैं।
● ऑनलाइन गालीबाज मुझे मुस्लिम पत्रकार मानकर मुझे गरियाने में लगे हैं। मुझे भी वही डर सा लग रहा है जो जब मुझे हैदराबाद के पड़ोसी के घर सोने के लिए भेजे जाते समय लगता था। 90 वापस लौट आया है।
●(यह टेलीग्राफ के पत्रकार और हमारे मित्र फीरोज विन्सेंट - जो एक ब्रेव फाइटर हैं - की पोस्ट का हिंदी भावानुवाद है। यदि फीरोज ऐसा सोचने के लिए विवश हैं तो सचमुच यह समय दु;समय है - दु;समय में सबसे पहली आवश्यकता होती है अच्छे समय के लिए लड़ना जूझना और उसका एकमात्र तरीका है सांड को सींग से पकड़ना ,)
बादल सरोज
लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं