नागौर की घटना के लिए सिर्फ वे आततायी ही जिम्मेदार नहीं हैं, हमारी पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है!

नागौर की घटना केंद्र, सभी राज्यों की सरकारों और न्यायपालिका, सबके लिए शर्म का विषय बननी चाहिए थी! पर कोई गंभीर आत्ममंथन नजर नहीं आता! सोचिए एक आजाद और लोकतांत्रिक मुल्क में सात दशकों बाद भी अकल्पनीय उत्पीड़न की ऐसी नृशंस घटना क्यों होती है? इस तरह की नृशंसता के शिकार अपने मुल्क में आमतौर पर दलित या कुछ क्षेत्रों में आदिवासी ही क्यों होते हैं? 
असम में अखिल गोगोई को CAA-NRC विरोधी आंदोलन करने के जुर्म में सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NRC) के तहत हिरासत में लेती है! कश्मीर में तो सारे स्थानीय नेता लोक सुरक्षा कानून (PSA) के तहत कई महीने से जेल में हैं! इनमें किसी ने कोई नृशंसता या जघन्य अपराध नहीं किया और न ही उनके बारे में ऐसी कल्पना की जा सकती है! उनका जुर्म सिर्फ इतना है कि मौजूदा शासक उनसे भयभीत हैं कि वे जनता को सरकार की ग़लत नीतियों के खिलाफ गोलबंद करने में समर्थ हैं! 
अब आप ही सोचिए, नागौर में जिन आतताइयों ने दो दलित भाइयों पर अमानुषिक जुल्म ढाया है, उन जैसों के साथ हमारी सरकारें और न्यायपालिका का क्या सलूक होता है? 
भूलना नहीं चाहिए कि पिछले दिनों इस देश में 'एससी-एसटी एक्ट' (अत्याचार रोकने का कानून) को खत्म करने या उसके प्रावधानों को कमजोर करने की जोरदार कोशिशें हुईं! उस दरम्यान न्यायिक मंचों की क्या भूमिका लिखी?
नागौर में जिन्होंने यह अपराध किया, वह इस विश्वास से भरे रहे होंगे कि उनका कुछ खास नहीं बिगड़ेगा। उनके पास तमाम उदाहरण होंगे! अपने आस-पास के तमाम ऐसे कांडों के उदाहरण, जब आतताइयों को कड़े कानून होने के बावजूद शासन से या न्यायालय से 'राहत' मिल गई! 'राहत' के ऐसे तमाम उदाहरण राजस्थान से बिहार और हरियाणा से गुजरात और यूपी से मध्यप्रदेश तक मिल जायेंगे! बिहार में लक्ष्मणपुर बाथे और शंकर बिगहा सहित तीन बड़े नृशंस दलित हत्याकांडों के सभी दोषियों को न्यायालय ने 'ठोस साक्ष्य के अभाव' में बेकसूर घोषित कर दिया! इन तीनों हत्याकांडों में दलित समुदाय के 104 लोग मारे गए थे! इनमें बच्चे, बूढ़े और महिलाएं भी थीं! कैसे ये मुकदमे लड़े गए और राज्य प्रशासन और पुलिस आदि की इसमें क्या भूमिका रही, इस पर काफ़ी लिखा और बोला जा चुका है! 
इसलिए नागौर की घटना के लिए सिर्फ वे आततायी ही जिम्मेदार नहीं हैं, हमारी पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है! कानून का राज ही नहीं बनने दिया गया! कानून का डंडा आमतौर पर गरीबों, शासकों से असहमत लोगों या ग़रीबों के पक्ष में आवाज उठाने वालों पर ही चलता है! नागौर सिर्फ राजस्थान का 'शर्म' नहीं है, यह पूरी भारतीय सामाजिक संरचना और राजनीतिक व्यवस्था के शर्मनाक चरित्र का एक अध्याय भर है! ऐसे अनेक अध्याय जुड़ते रहेंगे!


उर्मिलेश