लक्ष्मी-



अभी जिस इलाक़े में हम रहते हैं,वह बसने की प्रक्रिया में है ।कोई पाँच साल हो गए हमें यहाँ आए हुए ।लेकिन चूँकि मेरे छोटे बेटे का यहाँ कार्यस्थल है,तो हम पहले से आते रहे,इसी दौरान हमें यह घर दिखा,जो बंद पड़ा था अधूरा सा था,को बेटे को कहा-इसे ले लो ।
शायद अवचेतन में यहाँ बसने की हसरत रही होगी,तो बेटे ने कहा,इस बार जब जाएं तो मेरे किसी आदमी को कह दीजिएगा,वह लक्खी को बुला देगा।
सो अगली बार उसे बुलवाया-एक बूढ़ी होती औरत मैले से कपड़े में आई,निर्मल हँसी के साथ बोली-आमाके नाय चिनते पारले ! ( मुझे नहीं पहचाना )
तो पत्नी ने बताया कि क़रीब पैंतीस सालों पहले यह हमारे वहाँ नौकरानी थी,फिर निर्माण के समय रेज़ा भी थी ।
बहरहाल मुझे याद तो नहीं आया,लेकिन यह जान कर अचरज हुआ कि जितनी भी जगहें,यहाँ हैं जिनमें दरवाज़े लगे हैं,सभी की चाबी इसके ही पास रहती है,क्योंकि उन जगहों के मालिक तो और कहीं रहते हैं । चकित भी हुआ,लेकिन जब हमारा यह मकान पूरा होने लगा तो देखा वह भी रेजाओं में थी,तब पता लगा कि यहाँ हर जगह यह रेज़ा का काम करती है ।
धीरे-धीरे पता लगा कि विधवा है,एक जवान बेटा है,नकारा है,शराबी है,इत्यादि,घर में बहु है,पोते भी होंगे ही ।फिर देखा वह बड़ी-सी टोकरी में गोबर खरीद कर लाती,सड़क पर पड़ी गोबर जमा करती और किसी जगह की बाउंड्री के बाहर ढेर लगाती,फिर उनके उपले उन्हीं दीवारों पर थापती ।हमारे आधे इलाक़े में गरीब-गुरबा ही रहते हैं,जिनके यहाँ चुल्हे इन्हीं उपलों से,या जमा की हुई लकड़ियों से जलते हैं,सो वे सारे लोग लक्ष्मी से उपले ख़रीदते हैं,वह कभी भी बेकार नहीं रहती है,इलाक़े में निर्माण कार्य होते ही रहते हैं,तब वह रेज़ा का काम करती है,दोपहर को खाने की छुट्टी में वह खाने के अलावा,या तो उपले थापती है,या सड़क पर इधर-उधर पड़ी गोबर जमा करती है और हर समय एक अद्भुत हँसी उसके चेहरे पर तैरती रहती है-उसकी उम्र अंदाज़न पैंसठ की तो होगी ही ।
कभी वह दिखती है,तो हमेशा मैं,मन ही मन उसे सलाम करता हूँ,वह मुझे दुनिया की सबसे खुद्दार और ख़ूबसूरत औरत लगती है ।
लक्ष्मी ऐसी ही होती है -सलाम ॥