मुझे नहीं मालूम नफ़रत की आंधी में मुहब्बत की लौ को हम सब बचा पाएंगे या नहीं। मेरे भीतर बहुत कुछ टूट रहा है, दरक रहा है। इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही हूं कि एक इंसान इसलिए मार दिया जाय कि उसका मजहब हमारा मज़हब नहीं है। दिल्ली से लगातार लोगों के मारे जाने की खबर है। हमारे बीच कोई गांधी नहीं है जो नफ़रत की धध कती आंधी को रोक दें। गांधी को पढ़ते हुए उन्हें अपने भीतर पाती हूं। उनकी बात बार-बार याद आती है। उन्होंने कहा था अगर तुम किसी धर्म से घृणा करते हो तो उस धर्म के किसी अनाथ बच्चे को गोद ले लो। वे कहते थे ये ताबीज़ है जो में तुम्हें दे रहा हूं। क्या गांधी हमारे भीतर मर गए हैं। नौआखाली में भीषण मार- काट के बीच गांधी लोगों के साथ खड़े हो गए थे। और दंगा रुक गया था। मेरा यकीन है कि हम सब जो अमन पसंद लोग है वे अपनी सांझी विरासत को बचा लेंगे। पर इस दौरान जो कुछ टूट रहा है , जो नफ़रत बोई जा रही है उसके ज़हर से हमलोग अपने बच्चों को तो बचा लें। मेरे लिए तो यह स्वीकार करना और मुश्किल है कि घृणा मुहब्बत पर भारी पड़े। हमनें तो दोनों धर्म के बीच जीवन गुज़रा है। हर बार यही पाया की मनुष्य का स्वाभाविक गुण है प्यार करना है। अगर मुहब्बत से हम इंसान को जीत नहीं पाए तो इंसान बने रहने का क्या मतलब। जो लोग नफ़रत बो रहे हैं उन्हें पहचानना होगा। उस राजनीति को भी खारिज करना होगा। फेसबुक और व्हाट्स एप को नफ़रत की इस सुनियोजित साजिश से बचाना है तो उन तमाम लोगों का विरोध करें । दिन रात टीवी पर परोसी जाने वाली घृणा को भी खारिज करें। आएं समवेत स्वर में कहें हम तुम्हारी साजिश नाकाम करेंगे। #हमन है इश्क़ मस्ताना हम न से होशियारी क्या। #
निवेदिता शकील
लेखक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता है