भाजपा के चाणक्य अमित शाह का अचानक ज़बरदस्त पतन

दिल्ली हिंसा : भाजपा के चाणक्य अमित शाह का अचानक ज़बरदस्त पतन


●दिल्ली के दंगों और उपद्रव के बाद शाह के कड़क और दमदार प्रशासक की छवि टूट-फूट सी गई है. दिल्ली में जान-माल की हिफ़ाज़त में बुरी तरह नाकाम रहने के लिए ख़ुद को कोसने के सिवा भाजपा के चाणक्य के पास कोई चारा भी नहीं.●


2020 की शुरुआत में अमित शाह भारतीय राजनीति के नए सितारे के रूप में उभरे थे. नरेन्द्र मोदी के बाद सबसे अधिक शक्ति उन्हीं के पास थी. कई लोग उन्हें अगले प्रधान मंत्री के रूप में देखने लगे थे.


दो महीने बीतते-बीतते , हालांकि शाह अभी भी अपनी पूरी ताकत को भांज सकते हैं, लेकिन अब उनका दम उखड़ता सा दिख रहा है. ऐसा लगता है जैसे एक प्रशासक के रूप में अब वे क्लीन बोल्ड हो चुके हैं. दिल्ली के कुछ हिस्सों में हिंसा और दंगों के दौरान लोगों के जान-माल की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार द्वारा समय पर क़दम उठाने में वे नाकाम रहे. इसी कारण गृहमंत्री के रूप में असरदार तरीके से काम करने की उनकी क्षमता पर सवालिया निशान लग गया है.


उनका यह पतन अचानक ही हुआ है. इसमें कोई शक नहीं कि देश के सभी राजनीतिज्ञों में नरेन्द्र मोदी राजनीतिक रूप से सबसे ताक़तवर हैं, और अमित शाह उनकी पहली पसन्द के रूप में जाने जाते हैं. जब अमित शाह ने कश्मीर में जनसंघ के पुराने एजेन्डे को लागू किया, और कश्मीर समेत पूरे भारत में कोई विरोध नहीं होने दिया, उस वक्त वे हिन्दू राष्ट्रवादियों के नायक के रूप में उभर रहे थे. लेकिन आज यह सवाल उठ रहा है कि क्या किसी आकस्मिक परिस्थिति को संभालने के लिए उनकी पार्टी या कोई भी उन पर उतना ही भरोसा कर सकता है?


अब इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि दिल्ली के दंगे भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के भड़काने से भड़के या यह भीम आर्मी के पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इन्डिया की साज़िश थी, या दोनों ही इसके ज़िम्मेदार हैं. यह बात भी बेमानी है कि दंगों की शुरुआत हिंदुओं ने की या मुसलमानों ने. यह सवाल भी ग़ैरज़रूरी है कि इस तांडव के लिए भाजपा के कपिल मिश्रा पर आरोप लगाया जाए या आप के ताहिर हुसैन पर. दुर्भाग्य से उकसावा और साज़िश हमारे देश में शुरू से ही घुले-मिले हैं, और भविष्य में भी वे ऐसे ही मौजूद रहेंगे. असली सवाल यह है कि हमारे देश के कर्णधारों में ऐसे हालात के पूर्वानुमान की क्षमता है या नहीं, और ऐसे हालात पैदा होने पर वे इस पर क़ाबू पा सकते हैं या नहीं. इस इम्तिहान में शाह ने सौ में शून्य अंक प्राप्त किया है. सिफ़र.


पिछले कुछ हफ्तों और महीनों से दिल्ली में क्या खदबदा रहा है, ये सबको मालूम था. और शाह के खुद के क्रियाकलापों का इसमें बड़ा हाथ था. उन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम सीएए और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी एनआरसी का घालमेल किया और उसके बारे में ऐसे बड़े-बड़े दावे किए जैसे यह कोई राजनीतिक ब्रह्मास्त्र हो. वास्तव में इन दोनों का मूल उद्देश्य मुख्यतः बांग्लादेशी हिन्दू "शरणार्थियों" को बिना परेशान किये मुस्लिम "घुसपैठियों"  को खोजना और भारत से भगाना था. यह सवाल अलग है कि ऐसा हो पायेगा या नहीं, और जिन्हें भगायेंगे उन्हें लेगा कौन.
लेकिन अमित शाह ने कभी इसका ज़िक्र एक रूटीन सरकारी काम की तरह नहीं किया. बल्कि इसका इस्तेमाल उन्होंने अपने पक्ष में हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने वाले औजार के रूप में किया. गुजरात में भाजपा के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए,  स्वाभाविक था कि मुसलमान इस घनचक्कर से सशंकित और आतंकित हो गए. सिर्फ़ सीएए उतना डरावना नहीं था, लेकिन अमित शाह की मेहरबानी से पैदा हुए इसके जुड़वाँ भाई एनआरसी ने डर फैला दिया. इसीलिए अब यह जानने का कोई मतलब नहीं कि आम मुसलमानों को कट्टरवादियों ने "गुमराह" किया, या प्रतिक्रियावादियों ने. अगर मौका मिल जाये तो दुष्ट लोग हमेशा उस मौके का फ़ायदा उठाते ही हैं. और इस बार मौका अमित शाह ने दिया.


हालांकि मोदीजी ने स्वयं प्रकट होकर अमित शाह की बात को निरस्त करते हुए कहा कि सीएए के बाद एनआरसी लागू करने की कोई योजना नहीं है, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. कई मुस्लिम समूह शाहीन बाग समेत दिल्ली में कई जगह सड़क पर बैठ चुके थे. उनके इस विरोध को जबरदस्त प्रचार मिल रहा था. दिल्ली पुलिस केन्द्रीय गृह मन्त्रालय के अधीन है और इसलिए शाह के पास दोनों विकल्प थे - चाहें तो बल-प्रयोग के द्वारा सड़क ख़ाली करवा लें, या प्रदर्शनकारियों से चर्चा करें. दुर्भाग्य से उन्होंने दोनों उपायों की न केवल उपेक्षा की बल्कि उल्टे दिल्ली चुनाव में इस मामले का राजनैतिक लाभ लेने में भिड़ गए.


अगर वो चुनाव जीत जाते तो वे हिन्दू हृदय-सम्राट बन जाते. लेकिन उनका गुजरात-स्टाइल प्रचार मुँह के बल गिरा और तभी यह अच्छी तरह से साबित हो गया कि न तो उनमें परिस्थिति का आकलन करने की राजनीतिक बुद्धि है और न उपयुक्त रणनीति बनाने की कुशलता. इसी तरह पहले वे झारखण्ड में भी नाकाम रहे थे, लेकिन वो अलग कहानी है. दिल्ली में तो उनकी रणनीति ने पार्टी की हालत बद से बदतर करने के अलावा कुछ नहीं किया.


दिल्ली में जब झड़पें शुरू हुईं तो दिल्ली पुलिस ने हिंसा को सख़्ती से कुचलने की बजाय एक बचाव दल की कमज़ोर भूमिका निभाई. इसी वजह से रविवार, 23 फरवरी,
की दोपहर से मंगलवार, 25 फरवरी की दोपहर तक स्थिति लगातार बिगड़ती गई. इन अड़तालीस घण्टों ने अमित शाह के नए भारत के "लौह पुरुष" बनने के सपनों पर पानी फेर दिया.


लगता है शाह को उनकी करनी का फल मिल गया है. मंगलवार, 25 फरवरी की शाम से वरिष्ठ दफ्तरशाह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल को दिल्ली का ज़िम्मा दे दिया गया और हिंसा भी रुक सी गई. डोवाल दंगाग्रस्त इलाकों में गए, हिन्दू-मुस्लिम दोनों मोहल्लों में लोगों से मिले. उन्होंने सभी से हिफ़ाज़त का वादा किया, और सरकार की भारी चूक को भूलने का आग्रह किया - "जो हो गया, सो हो गया". और हमारे राजनेता शाह, इस दौरान अपने दड़बे में ही घुसे रहे! एक मन्त्री के रूप में शाह की धाक पर ये गहरा धब्बा है.


इधर दिल्ली जल रही थी और दूसरी तरफ़ पार्टी के अन्दर से भी शाह की राजनैतिक धाक पर एक सवालिया निशान लगा. यह हुआ बिहार में, उनकी ख़ुद की पार्टी के सुशील मोदी के द्वारा. मंगलवार, 25 फरवरी को बिहार विधानसभा ने एकमत से एनआरसी के विरोध में प्रस्ताव पारित कर दिया. उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के नेतृत्व में भाजपा सदस्यों ने भी इसमें साथ दिया. सीधे कहें तो जेडीयू सुप्रीमो, मुख्यमन्त्री नीतीशकुमार की ख़ुशामद में सुशील मोदी ने अमित शाह को कूड़े में फेंक दिया.


पिछले साल के आखिरी तक अमित शाह धूमकेतु की तरह आकाश में चढ़ते दिख रहे थे. चालू साल के दो महीनों में ही उस धूमकेतु के दुकड़े-टुकड़े हवा में छितराते गिर रहे हैं. यह उनकी ख़ुद की करनी का फल है. वो भूल गए थे कि भारत का हर राज्य अलग मिज़ाज का है. दिल्ली गुजरात नहीं है. बिहार और बंगाल भी गुजरात नहीं. और कर्नाटक, तमिलनाडु और तेलंगाना भी गुजरात जैसे नहीं. एक ही राजनैतिक चाल हर राज्य में नहीं चलती. उत्तर का, पूर्व का, उत्तर-पूर्व का, दक्षिण का और पश्चिम का, सब का अलग-अलग मिज़ाज है, सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर सबका अलग-अलग नज़रिया है; और यहाँ तक कि सबकी जीवन-शैली भी अलग है. अगर शाह को फिर से अपना उद्धार करना है, तो उन्हें इन विविधताओं में घुलना-मिलना होगा और इसका सम्मान करना होगा. वरना आगे भी वे बार-बार फ्लॉप होंगे, और उनके सबक सीखने की नाकामी का भारी ख़ामियाज़ा भारतीय जनता को भी उठाना पड़ेगा.


(डेक्कन हेराल्ड में 27 फरवरी 2020 को प्रकाशित दीप्तेन्द्र रायचौधुरी के लेख "Delhi violence: The sudden, hard fall of BJP's ' Chanakya' Amit Shah" का हड़बड़ानुवाद)


Source dekkan herald