1 जनवरी,2020 को लिखी थी ये कविता! #दिल्ली में आपने इसको घटते देखा! #जनता से अपील है की किसी भी पार्टी या नेता के भ्रम,भेड़,भीड़ से निकलकर #संविधान का दामन पकड़ों, तभी 'हम भारत के लोग' रह पायेगें !
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दुःस्वप्न
-मंजुल भारद्वाज
भयावह मंजर है
चारों ओर दहशत है
देश के ताने बाने पर
छाया घना कोहरा है
इस कोहरे की आड़ में
वर्चस्ववादी,विकारग्रस्त
विषधारी सत्ताधीश
संविधान,संस्कृति की
जड़ों में आग़ लगा
हिन्दू तुष्टिकरण की अर्थी पर
देश को लिटा
सत्ता का सुख सेक रहा है
युवा जाग रहे हैं
भक्त भाग रहे हैं
भेड़ बनी भीड़
जनता के पुन:अवतार में
जिंदा हो रही है
इस प्रतिरोध से
निरंकुश सत्ताधीश
हिल रहा है
जनता के प्रतिरोध को
अब सेना से कुचलने का
षड्यंत्र रच रहा है
क्या सेना भी लहुलुहान होगी?
अपने देशवासियों के खून से
वर्दी को रंगेगी?
रूह कपाने वाले
इस दुःस्वप्न से
रक्त उबल गया
शरीर का पानी सूख गया
कंकाल नाज़ी कैंप की
यात्रा करता हुआ
नए साल के जश्न में
भीषण मानवीय नरसंहार की
इबारत लिखते हुए
काल को देख रहा है!
#दु:स्वपन #
मंजुलभारद्वाज