जेएनयू, फैज़ के बाद अब जहर की होम डिलीवर


#हिंदुत्व_की_गुंडावाहिनी_का_थ्री_डी_धावा


● जेएनयू का काला रविवार सिर्फ जेएनयू या उसके जरिये एएमयू और जामिया के मोर्चे पर डटे छात्रों- शिक्षकों भर के लिए सन्देश नहीं है। हिन्दुत्वी गुण्डा गिरोहों के हमलों का अगला और ज्यादा आगे बढ़ा चरण पूरे देश के लोकतंत्र पसंद अवाम के लिए हमलों की शुरुआत की एक बड़ी चेतावनी है। केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने एकदम सही पहचानते हुए इसे "नाज़ी शैली में हुआ घृणित हमला" करार दिया है। इस तरह के हमलों की मिसाल पिछली सदी के तीसरे चौथे दशकों में जर्मनी और इटली में अमल में आते हुए दुनिया देख चुकी है। भारत इसे छोटे बड़े, स्थानीय प्रादेशिक स्तर पर नब्बे के दशक से आम तौर से और 2002 खासतौर से देख रहा है।
● जेएनयू में जो हुआ वह सरकार के उच्चतम स्तर से बनी और उनकी सक्रिय भागीदारी के बिना नहीं हो सकता था। मोदी-शाह से नीचे के किसी और के कहे बिना यह मुमकिन नहीं कि पुलिस अफसरान की भीड़ खड़ी रहे और देश की शान मानी जाने वाली प्रतिष्ठित एक और यूनिवर्सिटी - जेएनयू - पर हथियारबंद गुण्डे धावा बोल दें। जेएनयूएसयू की अध्यक्षा आइशे घोष की बर्बरों द्वारा ढूंढ तलाश की जाये और फिर उन्हें निर्ममता के साथ अपने हथियारों से घायल कर दिया जाए। उनके साथ तीन दर्जन से ज्यादा जेएनयू छात्रों और अनेक प्रोफेसर्स को घायल कर अस्पताल में भर्ती होने की हालत में पहुंचा दिया जाये। दर्जनों टांकों वाले घावों और सिर में लगी खुली मुंदी चोटों के बावजूद एम्स जैसे अस्पताल से उन सबको बिना किसी के, बिना भर्ती किये सिर्फ फर्स्ट-एड का प्राथमिक उपचार देकर वापस लौटा दिया जाए। हिम्मत यहां तक हो जाये कि जेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष सीताराम येचुरी को अस्पताल में पहुंचे घायलो को देखने और मिलने से भी ठीक उसी तरह रोक दिया जाये जैसे श्रीनगर के हवाई अड्डे पर रोका गया था । एक्टिविस्ट योगेन्द्र यादव के साथ भी सरेआम धक्कामुक्की कर दी।
● जेएनयू ने इमरजेंसी देखी है । मगर यह सब करने की हिम्मत तो तब भी नही हुई थी जो अब बिना आपातकाल घोषित किये हुआ । जेएनयू पर हुए हमले ने यदि हिंदुत्व की गुण्डा वाहिनी की बर्बरता की नयी नीचाई सार्वजनिक की है तो प्रतिरोध को भी नयी ऊंचाई और व्यापकता तक पहुंचाया है।
● दिनों दिन बढ़ रहे जनता के गुस्से और नतीजे में मोदी की प्रायोजित आभा के तेजी धुंधलाने के चलते मुख्य सत्ताकेन्द्र के दोनों ध्रुव - आरएसएस और कारपोरेट भड़भड़ाये हुये हैं। संघ कुटुंब ख़ास हड़बड़ी में है इसलिये सारे संपोले बाहर निकाल दिए है - सारे फन फैलाये जा रहे हैं। ये सिर्फ जेएनयू के कुलपति या चंद प्रोफेसर की पोशाक पहने संघी भेड़िये ही नहीं थे, जो जेएनयू के काले रविवार की रात में हमलावरों के साथ थे, उनके साथ व्हाट्सएप्प पर हमलों के नक़्शे बना रहे थे। अपने ही विश्वविद्यालय को तुड़वा रहे थे - बाकी जगहों पर बैठे इनके हमनस्ल दूसरे तरीकों से इसी अजेंडे को आगे बढ़ा रहे थे।
● कानपुर आईआईटी ने तो एक तरह फैज़ अहमद फैज़ को मरणोपरान्त हाजिर होने का हुकुम सुनाते हुये उनकी कमाल की जिंदा नज़्म "हम देखेंगे" पर जांच बिठा दी। जाँच होगी कि नज़्म में देशद्रोह और बगावत कितनी है, इस्लाम कितना है , हिन्दू धर्म के साथ अदावत कितनी है। मजेदार बात यह है फौजी तानाशाह ज़िया उल हक और उस वक़्त के उसके संगी साथी कट्टरपंथी मुल्लों ने ने ठीक इन्ही आधारों पर इस नज़्म की "जांच" की थी । यह जांच फ़ैज़ को जेल में रखकर की गई थी । फ़ैज़ के पढ़ने और गाने तक पर बंदिशें लगा दी गई थीं । कहते हैं कि इस नज़्म का जो पाठ जिस सुर में आज सबसे ज्यादा मशहूर है उसे गाने के बाद इक़बाल बानो जब जलसे से बाहर निकली थीं तो उन्हें हिरासत में ले लिया गया था । अब वही नज़्म इन्हें नागवार गुजरी है। बिलाशक अपनी सारी मुश्किलों, जटिलताओं, पीड़ाओं और विडम्बनाओं के बावजूद यह समय एक रोचक समय है । फ़ैज़ के लिए तो बिल्कुल 'कू ए यार से निकले तो सू ए दार' चले वाला समय ।
● डराना, धमकाना जो न डरे उसपर हमला बोल देना यह हिंदुस्तान के आज के शासक गिरोह की त्रिआयामी क्रोनोलॉजी है । जहर की अलग अलग डोज है इसके पास । नागरिकता संशोधित कानून के समर्थन में घर घर जाकर समझाने का संघ-भाजपा का अभियान गाँव बस्तियों तक साम्प्रदायिकता की विषाक्तता से ओतप्रोत करने के लिए है । कश्मीर के लेह से अंडमान के पोर्ट ब्लेयर तक वे उस भाषा और मुहावरे में विभाजन का संदेश ले जा रहे हैं जिसे फिलहाल लिखापढ़ी में कहने से वे बचना चाहते हैं । जबरदस्त देशव्यापी प्रतिरोध और तीखी अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया से सनाका खाये प्रधानमंत्री मोदी ने रामलीला मैदान की चुनावी जनसभा में एनआरसी शब्द तक पर चर्चा न होने का जो झूठ ठेला था - अब उसे भाजपा आरएसएस और सरकार लपेट समेट रही है । पूरे देश मे जनता को समझाने के बहाने एक दम कुफ्र जुबान में वीभत्स तरीके से हिन्दू- मुसलमान का खेल खेला जा रहा है । नफ़रतों के झाड़ खड़े किए जा रहे हैं । ● सिर्फ वाम को छोड़ और किसी धारा ने इसके प्रतिवाद में न उतरने और जनता के बीच इस जहरीली खरपतवार की सफाई सिर्फ जनता के स्वविवेक पर छोड़ देने की जो समझदारी बनाई लगती है उससे ज्यादा भुलावे की कोई और बात नही हो सकती । ठीक यही वजह है कि एनआरसी और सीएए के खिलाफ लगातार तर्कसंगत तरीके से जुझारू लड़ाई लड़ते छात्र छात्राएं इस गिरोह को खटकते हैं । जेएनयू उनकी आंखों में चुभती है । क्योंकि इन्होंने स्वविवेक की समझदारी न चुनकर सांड़ को सींग से पकड़ने का रास्ता चुना है ।
● यह आरम्भ का अंत है या अंत का आरम्भ यह आने वाले कुछ महीनों के घटनाविकास से तय होगा । मगर इतना तय है कि यदि पूरे देश मे आये गुस्से के उबाल और प्रतिरोध के तूफान के बाद मोदी शाह की जुण्डली बजाय लोकतांत्रिक विमर्श और संवाद शुरू करने के तानाशाही के बघनखे निकाल रही है तो अवाम भी अपनी ताकत दिखाने और बढ़ाने की जी तोड़ कोशिशों में लगा है । आज ही हुई 8 जनवरी को देश के मजदूरों किसानो की आम हड़ताल और बकाया मेहनतकश तबकों का उसे समर्थन इसी का उदाहरण है ।


Badal Saroj


लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय सह सचिव हैं.