समाजवादी विचार की जीवंत मूर्ति थे - मामा जी  - डॉ. सुनीलम 

मामा बालेश्वर जी की 21 वीं पुण्यतिथि( 26 दिसम्बर ) 



मामा जी के जीवन काल में मैंने उन्हें देखा भर था। जॉर्ज साहब और मधु लिमये जी के यहां परिचय हुआ , मुलाकात हुई। परंतु मामा जी के देहांत के बाद उनके कार्य क्षेत्र में जाने के बाद मामा जी के विराट  व्यक्तित्व के बारे में पता चला। मैंने समाजवादी आंदोलन के दस्तावेजों का प्रो. विनोद प्रसाद सिंह जी के साथ संकलन करने के दौरान बहुत कुछ पढ़ा। यहां तक कह सकता हूं कि आज तक मैंने समाजवादियों के बारे में जितना भी पढ़ा है और जानता हूं उसमें जितना जमीनी असरकारी कार्य मामा जी ने किया उसकी तुलना किसी दूसरे व्यक्ति के साथ नहीं की जा सकती। 


मामा जी विशुद्ध राजनीतिक व्यक्ति थे। केवल समाजवादी सिद्धातों में  भरोसा ही नहीं करते थे। उन्होंने आजीवन समाजवादी आचरण ही किया। समाजवाद की जीवन्त मूर्ति कहना ही न्यायसंगत  होगा ।उनका यही गुण उन्हें अन्य नेताओं की तुलना में विश्ष्टि स्थान दिलाता है। हमने डॉ. राममनोहर लोहिया जी के 'जेल, वोट, फावड़ा' के सिद्धांत को सुना लेकिन तीनों क्षेत्रों में योगदान करते मामा जी को जाना और समझा । मामा जी अंग्रेजों के जेल में रहे और आजादी के बाद भी जेल गये। उन्होंने पूरे भीलांचल के आदिवासियों को अन्याय, अत्याचार के खिलाफ लाल टोपी पहनकर, लाल झंडा लेकर संघर्ष करना सिखाया। मामा जी ने पूरे भीलांचल की राजनीति को प्रभावित किया। आज भी चुनाव के दौरान विभिन्न पार्टियों के नेतागण मामाजी के नाम का उपयोग करते हुये दिखलाई देते हैं। आज भी मामा जी के अनुयाइयों का राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में वोट बैंक है। मामा जी ने शिक्षा के क्षेत्र में स्कूल चलाकर योगदान किया। वैसे भी वे भीलों के लिये सदा हेडमास्टर के तौर पर कार्य करते। कैसे रहना चाहिये, क्या कपड़े पहनना चाहिये, क्या खाना-पीना चाहिये सबकुछ उन्होंने सिखाया। भीलांचल के लोग आज भी ये मानते हैं कि मामा जी के प्रयासों के चलते ही आदिवासियों ने लंगोटी छोड़कर पूरे कपड़े पहनना शुरू किया। मामा जी ने दहेज दापा की प्रथा को समाप्त करने तथा मांस-मदिरा छोड़ने के लिये आदिवासियों को प्रेरित किया। मामा जी ने न केवल राजनीतिक और वैचारिक प्रशिक्षण दिया बल्कि उन्होंने धर्मग्रंथों के माध्यम से भी आदिवासियों को तमाम किस्म की सीख देने का काम किया। 
मामा जी लोक भाषा, लोक भूषा, लोक भोजन और लोक संस्कृति को अपनाने वाले समाजवादी नेता रहे। उन्होंने भीली भाषा में तमाम किताबें लिखीं। हिन्दी तो मामा जी की मातृ भाषा थी ही लेकिन उन्होंने गांव-गांव में जाकर भीली भाषा में भी आदिवासियों के साथ संवाद किया। इस तरह जेल, वोट, फावड़ा के सिद्धांत को मूर्त रूप देने का काम मामा जी ने किया। 


मामा जी ने कभी परिवार से कोई घनिष्ठ रिश्ता नहीं रखा। एक बार जब निवाड़ी कला यानि अपना पैतृक गांव छोड़ा, उसके बाद गांव से बहुत ज्यादा रिश्ता नहीं रखा। यही कारण रहा कि हमने जब मामा जी के जन्मस्थान   निवाड़ी कला,इटावा  से कर्म क्षेत्र बामनिया तक की यात्रा की तब उनके खुद के गांव में मामाजी की विद्ववता तथा उनके स्वतंत्रता आंदोलन एवं समाजवादी आंदोलन में योगदान को जानने वाले बहुत कम मिले। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि मामाजी के अनुयाइयों ने राजस्थान से जाकर उनके अपने गांव में मूर्ति लगाई, शायद इसी को कहते हैं घर की मुर्गी दाल बराबर। मैंने जब निवाड़ी कला में कार्यक्रम किया था तब तमाम नेताओं ने, तमाम घोषणायें मामाजी को लेकर की थीं जैसा निवाड़ी कला में हुआ वैसा ही बामनिया में भी हुआ। मामाजी के तमाम चेले मंत्री बनकर बामनिया गये, तमाम घोषणायें कीं, लेकिन उनको घोषणाओं पर अमल नहीं हुआ। 


इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जिस व्यक्ति के 150 से ज्यादा मंदिर स्वयं आदिवासियों ने बनाए हों, जिसकी पूजा लाखों आदिवासियों द्वारा की जाती हो, जिसने आजादी के आंदोलन में ही नहीं, आजादी के बाद भी भीलांचल को मुख्य धारा से जोड़ने में अहम योगदान किया हो उस व्यक्ति की एक मूर्ति भी झाबुआ जिलाधीश कार्यालय के सामने आज तक न लगाई गई हो। मामा जी का सम्मान तो सभी पार्टियों और विचारधाराओं के लोग व्यक्तिगत तौर पर करते हैं लेकिन मामा जी की विचारधारा को खतरनाक मानते हैं तथा उस समाजवादी विचारधारा को खत्म करने का हर संभव प्रयास करते हैं। सरकारों और समाज के बलशाली लोगों को मामा जी के देवता हो जाने से कोई परेशानी नहीं है। लेकिन                             उन्हें समाजवादी विचार के नेता के तौर पर वे किसी भी हालत में स्थापित नहीं होने देना चाहते। यही कारण है कि मामा जी के समाधि स्थल - भीलाश्रम को किसी भी सरकार ने विकसित नहीं होने दिया है। 


मामा जी को भारत रत्न देने की मांग उनके अनुयायी कई वर्षों से कर रहे हैं। अभी तक सरकारों के कान पर जूं तक नहीं रेंगा है। मामा जी के नाम से बामनिया रेलवे स्टेशन का नामकरण किया जाये इस मांग को भी किसी सरकार ने भी तवज्जो नहीं दी है। 


मामा जी के नाम को आगे बढ़ाने  का काम मूल तौर पर भक्ति मार्ग से जुड़े मामाजी के अनुयायी( भगत ) कर रहे हैं। मामा जी के जीवन काल में ही राजस्थान के आदिवासियों ने मामा जी के जन्मदिन पर आश्रम में आना शुरू कर दिया था। देहांत के बाद आश्रम आने वाले आदिवासियों की संख्या दिन दुगनी रात चैगनी बढ़ती चली गई। लेकिन 25-26 दिसम्बर की रात को हर वर्ष पच्चीस हजार से अधिक अनुयाइयों के लिये कोई सुविधा का इंतजाम शासन और सरकार की ओर से अब तक नहीं किया जा सका है। 
अक्सर यह कहा जाता है कि सभी नेता एक जैसे होते हैं लेकिन मामा जी का पूरा जीवन उन्हें अन्य नेताओं से पूरी तरह अलग करता है। जो लोग सार्वजनिक जीवन में समाज के लिये योगदान करना चाहते हैं उनके लिये मामा जी का संपूर्ण जीवन एक मॉडल पेश करता है। एक तरफ जहां मामा जी के व्यक्तित्व में सादगी, सरलता, निर्भीकता, बहादुरी, त्याग, कथनी और करनी का तारतम्य है वहां उनके सार्वजनिक जीवन में समाजवादी विचार के प्रति अडिग प्रतिबद्धता दिखलाई पड़ती है। मामा जी जैसे नेता कई सदियों में एक बार ही होते हैं इसलिये मामा जी के अनुयायी नारा लगाते हैं 'जब तक सूरज चांद रहेगा, मामा जी का नाम रहेगा'। 


जरूरत इस बात की है कि मामा जी के समाजवादी विचारों को आगे बढ़ाने के लिये सुनियोजित तौर पर कार्य किया जाये। मामा जी के फोटो और कैलेन्डर तो हजारों की संख्या में हर साल बेचे जाते हैं। मामा जी पूरे भीलांचल के हर घर में मौजूद हैं लेकिन यही बात मामा जी के विचार के बारे में नहीं कही जा सकती। यह तो सभी मानते हैं कि यदि मामाजी ने अपना पूरा जीवन इस इलाके में नहीं लगाया होता तो यह इलाका भी नक्सलवाद और माओवाद से प्रभावित होता यह निष्कर्ष भी सरकारों के लिये एक रास्ता बताता है। 


मामा जी के जीवन पर मैंने क्रांति कुमार जी, राजेश बैरागी जी तथा राजस्थान के साथियों के साथ मिलकर  मालती बेन ,पुंजा भगत और मास्टर रामलाल निनामा के मार्गदर्शन में आठ से अधिक किताबें प्रकाशित की हैं लेकिन यह बहुत कम हैं। मामा जी के समाजवादी साहित्य को भीलांचल के हर घर तक पहुंचाने की जरूरत है ताकि मामा जी के जीवन से प्रेरणा अधिक से अधिक लोग ले सकें। 


डॉ. सुनीलम ,


लेखक  मध्य प्रदेश के पूर्व  एवं  समाजवादी समागम के राष्ट्रीय संयोजक हैं