#संविधान_दिवस:#प्रतीकों_की_राजनीति

 



'दिवाली के त्योहार पर पटाखों पर प्रतिबंध लगाना, जजों की नियुक्ति में विधायिका की भूमिका न रखना और जांचों की निगरानी ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे ज़ाहिर होता है कि हमारी अदालतें 'जुडिशियल ओवररीच' को बढ़ावा दे रही हैं !'



उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने बुधवार को गुजरात में आयोजित दो दिवसीय ऑल इंडिया प्रिसाइडिंग ऑफ़िसर्स के 80वें सम्मेलन में यह बात कही। इस मौके पर भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी वहां मौजूद थे! Indian Expressने इसे लीड स्टोरी के रूप में छापा है !



'जुडिशियल ओवररीच' से उनका अभिप्राय अदालतों का अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन था, अधिकार क्षेत्र यानी संविधान द्वारा निर्धारित लोकतंत्र के तीनों अंगों के बीच एक लक्ष्मण रेखा जिसे लांघने का अधिकार किसी को भी नहीं है - दरअसल यही है संविधान का शक्ति संतुलन !



कितना अजीब है न कि 26 नवंबर को मनाया जाता संविधान दिवस मोदी जी की 2015 में की गई एक घोषणा से शुरु हुआ था जबकि उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी, पार्टी के नेता और संघ व उसकी सहयोगी संस्थाएं एक भी मौका नहीं जाने दे रही थी इसके अपमान का ! साफ तौर पर कहा जा रहा‌ था‌ कि इसे खत्म करके देश के नए मिजाज़ के मुताबिक संविधान लागू किया जाना चाहिए ! तभी तो 1200 से अधिक कानूनों को चुपचाप बदल दिया गया और कुछ के स्थान पर दूसरे कानूनों को एक आंख अर्जुन की तरह बहुसंख्यक वोट बैंक पर रखते हुए गाजे बाजे के साथ लाया गया ! संसद में बहस की जगह बहुमत की हनक सुनाई दी ! कृषि संबंधी तीन कानूनों को तो ध्वनि मत से ही पारित कर दिया गया ! कानून बनने के साथ ही सड़कों पर उतर आए किसान कड़कती ठंड में आज भी विरोध पर्दशन कर रहे हैं और लोकतांत्रिक देश में उन्हें कटी ले तार लगा कर और ठंडे पानी की बौछार करके भगाने की हरचंद कोशिश की जा रही है !



संविधान के प्राक्कथन में स्पष्ट कर दिया गया था इसका लक्ष्य जब हमने इसे स्वीकार और खुद को ही अर्पित किया था :

•समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना,

•सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,

•व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करना ही हमारे संविधान का लक्ष्य है !



क्या सचमुच ऐसा कुछ हुआ ? जवाब आप सब जानते हैं ! जब बहुसंख्यावाद के ढोल नगाड़े पीट पीट कर इस 'समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य' को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात की जा रही हो; जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को चंद पूंजीपतियों की तिजोरी में बंद किया जा रहा हो, वहां संविधान हो न हो क्या फर्क पड़ता है !! संविधान तो ऐसी धार्मिक किताबों की तरह बन कर रह गया है जिसकी पूजा अर्चना तो हो सकती है, बहस भी की जा सकती है (इसी बहस के लिए बड़े वकील न्याय दिलाने की खातिर एक पेशी के पच्चीस पचास लाख रुपए की मांग करते हैं) लेकिन न तो उसे समझने की कोशिश की जाती है और न ही उसे लागू करने में कोई दिलचस्पी दिखाई जाती है !



वरिष्ठ पत्रकार करण थापर 'सुप्रीम कोर्ट को संघ के आंगन में नाचने वाला' बताते हैं और इतिहासकार रामचंद्र गुहा सिलसिलेवार ढंग से सुप्रीम कोर्ट की विसंगतियों को बताते हैं और सरकार प्रमुख के रूप में राष्ट्रपति महोदय की मौजूदगी में उपराष्ट्रपति जी 'जूडिशियल ओवररीच' की बात करते हैं ! अजीब बात यह भी है कि सरकारी मीडिया में इस पर कोई डिबेट भी नहीं होती ! ईवीएम के खिलाफ व्यापक विरोध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करने से भी इंकार कर देता है।



क्या अब महत्वपूर्ण ओहदों पर बैठे लोग अपने ही दावों के खोखलेपन से वाकिफ हो गए हैं या फिर दोहरा जीवन जीने के इतने आदी हो चुके हैं कि वे अपने झूठ में ही विश्वास करने लगे हैं !! अगर ऐसा नहीं होता तो समाज दो हिस्सों में नहीं बंटता ! हमारी ही जमापूंजी के निवेश से बने सरकारी उपक्रमों और कारखानों को कौड़ियों के मोल बेचा जा रहा है, कर्ज लेकर डकार जाने के आदी कार्पोरेटस् का छ: लाख करोड़ का कर्जा माफ हो चुका है और भी करने की तैयारी है जबकि खाद बीज या दूसरी जरूरतों के लिए छोटा मोटा कर्ज लेने वाले किसानों के घर कुर्की का नोटिस पहुंच जाता है, उनमें से कुछ आत्महत्या भी कर लेते हैं !



पिछले छ: बरसों ने सरकारी फिजूलखर्ची‌ के अनेक उदाहरणों को देखा है, तो गरीब मजदूर किसान को मजबूरी में 'पांच किलो अनाज और एक किलो चने' के लिए कतार में खड़े होते भी देखा है ! सरकार है कि विदेशी कर्ज लेने का कोई मौका नहीं छोड़ रही,

विदेशी कर्ज जो 2014 तक 446 अरब डॉलर था वह बढ़ 558.5 अरब डॉलर हो गया है ! इसके बावजूद हालत यह है कि देश मंदी की चपेट में है, कोरोना का बहाना भी किसी काम नहीं आ रहा !



जो शासक आम आदमी के दुख के प्रति संवेदनशील न हो वह संविधान को लागू करने के लिए गंभीर होगा, ऐसा तो सोचा भी नहीं जा सकता

!