RCEP पर भारत को छोड़ शेष 15 देश आगे बढ़ गये






 जिस जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिल क्वाड और सप्लाई चेन बना चीन के साथ होड के दावों से मीडिया भरा पडा था, पता चला कि वो दोनों भी आरसीइपी में शामिल हो अपनी सप्लाई चेन को चीन के साथ संबद्ध कर रहे हैं।

अब भारत के पूँजीपति वर्ग और उसके 'ज्ञानियों' में छातीपीटन जारी है कि एक ओर आरसीइपी में शामिल न होना तबाही है तो दूसरी ओर शामिल होना और भी बडी बरबादी है। अर्थात भारतीय पूँजीवाद आज साँप छछूंदर वाली उस स्थिति में है कि न उगलना बनता है न निगलना।

ये भारतीय पूँजीवाद के गहन मर्णांतक संकट का ही लक्षण है कि व्यापार बढाना जो पूँजीवादी उत्पादन के विकास के लिए सबसे स्वाभाविक कदम है वही आज उसे अपने लिए घातक जहर मालूम हो रहा है। पूरा पूँजीवादी इतिहास ही सस्ते से सस्ते औजारों, तकनीक व कच्चे माल के लिए दुनिया के कोने कोने को छान मारने की जद्दोजहद का गवाह है ताकि अधिक उत्पादक पर सस्ती स्थाई पूँजी से दूसरे पूँजीपतियों के मुकाबले कम मूल्य वाला माल बना न सिर्फ ज्यादा मुनाफा कमाया जाये बल्कि दूसरे पूँजीपतियों को बाजार से ही बाहर धकेला जा सके। यही वजह है कि आज समस्त उत्पादन व्यवस्था एक विराट आपूर्ति श्रृंखला का रूप ले चुकी है। उदाहरण के तौर पर एक मोबाइल फोन को कच्चे माल से अंतिम एसेंबली के बाद बाजार में लाने में लगभग 60-70 देशों के उत्पादक जुड़े होते हैं। पर आज भारत का पूँजीपति इसके लिए जरूरी वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में निर्बाध शामिल होने से ही कँपकँपी महसूस कर रहा है तो समझना चाहिए कि उसके आर्थिक संकट का कैंसर और अगली अवस्था में प्रवेश कर गया है।

इसके कारणों के विस्तार में जाने की गुंजाइश यहाँ नहीं है। पर इसका अनिवार्य नतीजा उच्च मूल्य पर माल उत्पादन अर्थात बहुसंख्यक भारतीय जनता के पहले से ही निम्न जीवन स्तर में और भी गिरावट होगा क्योंकि आवश्यक वस्तुओं की कीमतें अन्य देशों की तुलना में ऊँची रहेंगी। याद रहे पिछले तीन साल में इस सरकार ने सिर्फ पेट्रोलियम उत्पादों पर ही नहीं 3600 से अधिक उत्पादों पर आयात कर बढाये हैं। यह सिर्फ आयातित उपभोक्ता माल ही नहीं देश में ही उत्पादित वस्तुओं की कीमतों को भी ऊपर ले जायेगा और देश की मेहनतकश जनता और भी कम उपभोग कर पायेगी।